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श्राद्ध कर्म महज परंपरा और अंधविश्वास नहीं

• आचार्य रामकृष्ण पोखरियाल
हिन्दू संस्कृति के अनुसार श्राद्ध पक्ष (Shradh Paksha) का न सिर्फ धार्मिक और आध्यामिक महत्व है, बल्कि इसे मनाए जाने के प्रमाणिक वैज्ञानिक तथ्य भी मौजूद हैं। सनातन धर्म की परंपरा के अनुसार मृत परिजनों की आत्मा की तृप्ति के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। गरूड़ पुराण में लिखा गया है कि समयानुसार श्राद्ध करने से आयुष्य, संतान, यश कीर्ति और सुख प्राप्त होता है।

जन्म एवं मृत्यु का रहस्य अत्यंत गूढ़ है। वेदों में, दर्शन शास्त्रों में, उपनिषदों और पुराणों आदि में हमारे ऋषियों-मनीषियों ने इस विषय पर विस्तृत विचार किया है। श्रीमद्भागवत में भी स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जन्म लेने वाले की मृत्यु और मृत्यु को प्राप्त होने वाले का जन्म निश्चित है। यह प्रकृति का नियम है। शरीर नष्ट होता है, मगर आत्मा कभी भी नष्ट नहीं होती है। वह पुनः जन्म लेती है और बार-बार जन्म लेती है। इस पुनः जन्म के आधार पर ही कर्मकांड में श्राद्धादि कर्म का विधान निर्मित है।

विज्ञान और तकनीक के इस युग में श्राद्ध जैसी परंपरा को बनाए रखना भी एक चुनौती बनने लगा है। पढ़े-लिखे और तथाकथित आधुनिक लोग जब-जब श्राद्ध आते हैं, शोध में जुट जाते हैं कि यह सब है क्या? अपने दिवंगत पितृजन का स्मरण एक कर्मकांड ही नहीं, इससे भी अधिक भावनात्मक संबल का काम है।

हमारे बड़े-बूढ़े जो इस संसार से चले गए, उनकी स्मृति हमारी ताकत बन जाती है। जब किसी का श्राद्ध करते हैं तो इसका अर्थ होता है न जुबां से बोला जा रहा है, न आंखों से देखा जा रहा है। सिर्फ अनुभूति हो रही है। इस टफ टाइम में हमें उन राहों पर चलना है, जहां गिरना भी है, संभलना भी है।

इन तमाम चुनौतियों में पितृ हमारी ताकत बन जाते हैं। श्रीराम ने रावण को मारा, सीताजी को मुक्त करवाकर लाए, उस समय एक घटना घटी जिस पर तुलसीदासजी ने लिखा-

तेहि अवसर दसरथ तहं आए।
तनय बिलोकि नयन जल छाए।।

उसी समय दशरथजी वहां आए और पुत्र को देखकर उनकी आंखें आंसुओं से भर गईं। दोनों भाइयों ने उनकी वंदना की और पिता से आशीर्वाद प्राप्त किया। देखिए, दशरथ जी की मृत्यु हो चुकी थी, फिर भी वे आशीर्वाद देने आए। बस, यही श्राद्ध का भाव है। पितृ हर सफलता-असफलता में सदैव हमारा साथ देते आए हैं। श्राद्ध के रूप में उनकी स्मृतियां अंधविश्वास नहीं है, आस्था का मामला है।

अर्पण का नाम ही तर्पण
आजकल श्राद्ध पक्ष चल रहा है वर्ष में एक बार आने वाले इस पक्ष को महालयारंभ पक्ष भी कहते हैं श्रीमद्भागवत् गीता में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को संयमित करते हुए श्रद्धा से किसी कार्य को करता है उसे निश्चित ही सफलता प्राप्त होती है। हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार श्राद्ध पक्ष को बढ़ा पुनीत पक्ष एवं अपने पूर्वजों के स्मरण का पर्व माना गया है। इसीलिए हमारे यहां हर परिवार में लोग अपने पितरों की प्रसन्नता के लिए सर्वप्रथम तर्पण देते हैं, अपनी भावना का अर्पण करते हैं। उसके बाद गो ग्रास काक बली तथा शवान बलि कुत्ते को भोजन रूप में अन्न प्रदान करते हैं। फिर पुरोहित भोजन करता है यह एक ऐसा पूजन है जिसे हम अपनी पितरों को श्रद्धांजलि के रूप में भी याद करते हैं।

गरुड़ पुराण के अनुसार देवताभ्य स्वाहा स्वधा नमो नमः, देवताओं ऋषियो को और पितरों को श्रद्धा के साथ नमन किया जाना है। इसीलिए सबसे पहले देवताओं को तर्पण दिया जाता है। उसके बाद ऋषियों को और फिर पितरों को तर्पण दिया जाता है मनोवैज्ञानिक तौर पर कह सकते हैं कि अपने पूर्वजों को याद कर उनसे भावनात्मक संबंध बनाना ही इस काल में तर्पण ही अर्पण का नाम है।

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