ब्लॉगिंगसियासत

आखिर अपनी ‘Political Power’ कब दिखाएंगे उत्तराखंडी ?

• दिनेश शास्त्री / 

दिल्ली का सेवानगर याद दिलाता है कि लुटियन दिल्ली के आकार लेने के बाद गढ़वाल और कुमाऊं में काम कर चुके अंग्रेज अफसर जब वहां तैनात हुए तो अपने साथ यहां से कुछ सेवक भी ले गए। एक लड़ाका कौम को अंग्रेज 1815 में कुमाऊं और ब्रिटिश गढ़वाल कब्जाने के बाद कुंद कर चुके थे। उसके बाद पहाड़ियों को दिल्ली नजदीक लगने लगा और रोजी रोटी के लिए बेशुमार पहाड़ी दिल्ली जाने लगे। पहाड़ियों ने वहां रामलीला और अन्य धार्मिक आयोजन बढ़ चढ़कर किए लेकिन पहचान यहीं तक सीमित रही। लड़ाकापन अपने आपस में ही। कभी गढ़वाल हितैषिणी सभा को लेकर झगड़े तो कभी इलाके के संगठन बनाने में। कभी कभार एकाध कुलानंद भारतीय जैसे नेता उभरे तो वो अपनी मेधा के बल पर। दिल्ली में राजनीतिक फोर्स बनने की दिशा में कभी सोचा नहीं। आज दिल्ली के दो करोड़ वोटर में पहाड़ियों की संख्या बीस लाख है तो क्या कम से कम दस विधायक नहीं होने चाहिए थे? केवल पूर्वी दिल्ली की ही बात करें तो वहां अगर सचमुच पहाड़ी एकजुट एकमुट हो जाएं तो संसद में धमक बना सकते थे लेकिन आज भी हमारे लोग सिर्फ और सिर्फ राग-रंग तक सीमित हैं। राजनीतिक ताकत दिखाने में न जाने क्यों संकोच है?

इसबार एमसीडी चुनाव में उत्तराखंडियों की भागीदारी थोड़ी बढ़ी जरूर है लेकिन संतोषजनक नहीं है। भाजपा ने नौ पहाड़ियों को टिकट दिए तो उनमें से दिलशाद गार्डन वार्ड से बीर सिंह पंवार, पांडवनगर से यशपाल कैंतुरा, विनोद नगर से रवि नेगी, गीता कॉलोनी से नीमा भगत, नीतू बिष्ट और आनन्द विहार से मोनिका पन्त विजयी रही। तीन प्रत्याशी उसके हार गए। इनमें से आरके पुरम से तुलसी जोशी, नांगलोई से नरेन्द्र मनराल और एक अन्य हार गए। तुलसी जोशी पहले से पार्षद थी। उनकी हार पहाड़ियों के बिखराव का ही नतीजा रही है। आम आदमी पार्टी ने दो प्रत्याशी दिए थे। दोनों ही जगहों पर उसने रणनीतिक रूप से पहाड़ियों को पहाड़ियों से लड़ाया। संतनगर बुराड़ी में उसने रेखा रावत के मुकाबले रूबी रावत को खड़ा किया जबकि दूसरा प्रत्याशी मंडावली से कुलदीप भंडारी उतारा था। इसके अलावा जदयू ने संजय नेगी को टिकट दिया लेकिन वह जीत नहीं पाए। तीन अन्य पहाड़ियों ने निर्दलीय जोर आजमाया था लेकिन जीत किसी को भी नसीब नहीं हुई।

कांग्रेस से टिकट की उम्मीद करने का फिलहाल वक्त भी नहीं है लेकिन क्या यह सवाल वाजिब नहीं है कि विधायक की बात हो तो पहाड़ की भी हिस्सेदारी हो। करावल नगर से मोहनसिंह बिष्ट एकमात्र पर्वतीय विधायक हैं। बिष्ट ने अल्मोड़ा से निकलकर वर्षों त्याग तपस्या की। उनसे पहले मुरारी सिंह पंवार हुआ करते थे लेकिन बाद में पहाड़ी वोटों में सेंध इस तरह लगती रही कि पांडवनगर जैसी सीट से जीत नसीब नहीं हुई। वजह थी पहाड़ियों का खांचों में बंटा होना। पूर्वांचल वालों से भी हम यह नहीं सीख पाए कि जब अपने पराए में से अपने को चुनने का वक्त आए तो पार्टी या विचारधारा को नहीं देखा जाता। डॉ. गोविंद चातक अक्सर कहते थे, जिस दिन पहाड़ी अपने हृदय में हिमालय जैसी विराटता को धारण करेंगे, उसी दिन हमारा समाज उन्नति के चरम पर पहुंच सकता है।

टीवी पत्रकार मनु पंवार भी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पहाड़ियों के बिखराव पर चिंतित नजर आते हैं। वे कहते हैं कि जब तक दूसरे समाजों की तरह हम अपने हक को छीनने की कुब्बत हासिल नहीं करते, तब तक इसी तरह बंटे रहेंगे और सुख दूसरे लोग उठाते रहेंगे। मनु पंवार मानते हैं कि पहाड़ियों को अपनी पॉलिटिकल फोर्स को प्रदर्शित करना होगा अन्यथा वे हमेशा दूसरों का टूल बन कर रह जायेंगे।

दिल्ली गढ़वाल सभा के पदाधिकारी और सामाजिक कार्यों में संलग्न रहने वाले पवन मैठाणी मानते हैं कि हम लोगों को सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक सीमित रहने की प्रवृत्ति से बाहर आना होगा। वे याद करते हैं कि उमेश डोभाल हत्याकांड के समय वोट क्लब पर प्रदर्शन, उत्तराखंड आंदोलन के दौरान वोट क्लब तथा लालकिला रैली के अलावा हमारे समाज ने सड़कों पर कहीं कोई उपस्थिति दर्ज नहीं कराई। इन बातों को भी अरसा बीत गया है। किरन नेगी हत्या कांड में ही समाज कहां आगे आया। लोग घेंघे की तरह अपने तक सीमित हैं। मात्र कुछ लोग पहाड़ की अस्मिता के लिए फिक्रमंद हैं, ऐसे में पॉलिटिकल फोर्स की बात कैसे की जा सकती है।

द्वारिका में रह रहे प्रताप सिंह रावत भी कुछ इसी तरह की बात करते हैं। वे मानते हैं कि अपनी ताकत का अहसास कराए बिना कोई राजनीतिक दल हमें महत्व नहीं देगा। लिहाजा अब हक छीनने का वक्त आ गया है।

वैसे देखा जाए तो तीन चार दशक पहले पहाड़ी समाज अपना हक छीनने की स्थिति में नहीं था। उच्च मध्यम वर्ग की अलग दुनिया होती है, उससे आर्थिक और नैतिक समर्थन तो हासिल किया जा सकता है लेकिन सड़क पर उतरने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। नौकरीपेशा मध्यम वर्ग की दशा भी कुछ इसी तरह है। इस कारण नेतृत्व नहीं उभर पाया किंतु अब स्थिति थोड़ा बदलती दिख रही है।

देखा जाए तो अपना हक हासिल करने में उत्तराखंडी लोग हिमाचल से भी कुछ नहीं सीख पाए, हिमाचल के लोग किसी एक दल के पिछलग्गू नहीं बने रहते, वे हर पांच साल में बदलाव लाते रहते हैं, इस कारण हर पार्टी फिक्रमंद रहती है कि कहीं कोई गलती न हो जाए। उत्तराखंड इस लीक पर नहीं चला तो प्रवासियों से भी क्यों उम्मीद की जाए?

आज के दौर में दिल्ली में उत्तराखंड के प्रवासी अच्छी स्थिति में जरूर हैं लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। यह संख्या कैसे बढ़ेगी? इस पर सोचने की जरूरत है। अभी तक मोहन सिंह बिष्ट, डॉ. विनोद बछेती और वीरेंद्र जुयाल जैसे कुछ नाम ही हैं जो पहाड़ियों को एकजुट करने में रात दिन लगे दिखते हैं। वैसे पूर्वी दिल्ली में सबसे ज्यादा उत्तराखंडी रहते हैं और अगर एकजुटता हो जाए तो यहां से एक अदद सांसद पहाड़ी चुन सकते हैं लेकिन फिलहाल यह दूर की कौड़ी है। तात्कालिक जरूरत तो यह है कि अगर अगले दो तीन साल में प्रवासी उत्तराखंडी एक हो जाएं तो कोई पार्टी टिकट दे या न दे, दस विधायक तो विधानसभा में भेज ही सकते हैं। उस स्थिति में पार्टियों की मजबूरी हो जायेगी कि वे उत्तराखंडियो की उपेक्षा नहीं कर पाएंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में पहाड़ी अपना हक छीनने की हैसियत में आ जाएंगे। यहां उत्तराखंड में तो हम 52 गढ़ों में लड़ते रहे हैं, दिल्ली में तो कम से कम एक होकर दिखा ही सकते हैं।



(लेखक दिनेश शास्त्री उत्तराखंड के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button