लोक और संस्कृति के लिए प्रो. डीआर पुरोहित ने खींची बड़ी लकीर
जब लोक संस्कृति रातोंरात ’वायरल’ होने के दबाव से कोसों दूर थी… जब उत्तराखंड हिमालय के अधिकांश गांव सड़क से बहुत दूर थे… जब लोक संस्कृति के क्षेत्र में काम करना, उसके संरक्षण-संवर्धन के लिए कोई आर्थिक प्रोत्साहन और प्रेरणा नहीं थी… जब ढोल को छूने मात्र से कथित सवर्ण वर्ग अछूत हो जाता था… तब अंतरात्मा में विराजमान पित्रों की प्रेरणा और हिमालय की चोटियों से धाद लगाते लोक देवताओं के आह्वान पर, अपनी मिट्टी के लिए बेलौस प्रेम के ख़ातिर एक आदमी चुपचाप.. निःशब्द, समाज और सहकर्मियों के तमाम उपहास और हिक़ारत भरी नज़रों को अनदेखा करते हुए… उत्तराखंड के बीहड़ नीरव वन प्रान्तरों में अनिर्वचनीय की साधना कर रहा था…!
बिना प्रशंसा और पुरस्कार की आस में की गईं हज़ारों किलोमीटर की इन सांस्कृतिक यात्राओं और जन संवादों से इस आदमक़द आदमी को जो कुछ हासिल हुआ उसने उत्तराखंड के लोक और उसकी संस्कृति- दोनों के लिए बहुत बड़ी लकीर खींच दी है। ये उसी आदमी की कहानी का पुनर्पाठ है।
हरेला पर्व की शाम को देहरादून स्थित दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में वरिष्ठ पत्रकार दिनेश सेमवाल ’शास्त्री’ के संपादन में (उत्तराखंड भाषा संस्थान की वित्तीय सहायता से) विनसर पब्लिशिंग कंपनी देहरादून की ओर से प्रकाशित उत्तराखंड की लोक संस्कृति के प्रवेश द्वार प्रोफेसर दाताराम पुरोहित के सम्मान में “लोक संस्कृति और रंगमंच के पुरोधा : डॉ. डी.आर. पुरोहित“ अभिनंदन ग्रंथ का विमोचन हुआ। जिसमें गढ़रत्न नरेन्द्र सिंह नेगी सहित संस्कृति को लेकर संवेदनशील देहरादून के कई दानिशमंद लोग शामिल हुए।
एक बार गुरुजी (प्रोफेसर पुरोहित जी) ने मुझसे मज़ाक में कहा था कि महनीय व्यक्तित्वों के सम्मान में स्मृति ग्रंथ के बजाय अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित होने चाहिए ताकि उन्हें जीते जी अपने आस-पास के लोगों की भावनाओं का पता चल सके और वे अपने प्रति समाज की कृतज्ञता, सद्भावना, सम्मान और प्रेम से परिचित हो सके… प्रोफेसर दाता राम पुरोहित के जीवन और कर्म का भावपूर्ण पुनर्पाठ करती इस पुस्तक का संपादन करके दिनेश शास्त्री जी ने पुरोहित सर को उनके मामाकोट अन्द्रवाड़ी ( रुद्रप्रयाग) वालों की ओर से बौद्धिक शाबाशी भी दे दी!
हिमालय में डॉ. पुरोहित जैसी हलचल यदा यदा ही होती है और बहुत दुर्लभ है उनके जैसा महनीय जीवन जो अर्श पर पहुंचकर फ़र्श पर रह गए लोगों को केवल याद ही न करता हो बल्कि हाथ बढ़ाकर उन्हें ऊपर उठाने की सफ़ल कोशिश भी करता हो। अलग-अलग भूमिकाओं में प्रोफेसर पुरोहित ने जिन हज़ारों लोगों को प्रेरित और प्रभावित किया है, उन्हीं में से 31 लोगों ने इस पुस्तक में अपनी यादों को, अपनी भावनाओं और अपने श्रद्धा- सम्मान को अभिव्यक्त किया है।
विद्वानों की कृतज्ञ मंडली ने सुंदर विशेषणों के माध्यम से गुरुजी को याद किया है : किसी ने उन्हें ’चलता फिरता ज्ञानकोष’ कहा है तो किसी ने विनम्रता की प्रतिमूर्ति’, किसी ने ’रंगकर्म का तपस्वी’ कहकर अपनी भावना प्रकट की है तो किसी ने उन्हें ’नाट्य विधा का साधक’ कहा है। कवयित्री कांता घिल्डियाल ने एक सुंदर कविता के ज़रिए गुरुजी को ’गंवईं गंध का गुलाब’ कहा है।
लोककर्म, रंगमंच और आचरण की ब्रह्मकमल सी खुशबू वाले इस शानदार इंसान को समझना भला इतना आसान कहां है! Despite the plethora of definitions and decorations, he remains alone and elusive!
फ़िर भी उत्तराखंड हिमालय और पहाड़ की लोकसंस्कृति के लिए (जो अब आंगन से बेदखल होकर केवल मंचों की नाटकीयता होकर रह गई है) प्रोफेसर पुरोहित ने जो कुछ किया उसे आप नरेन्द्र कठैत, दिनेश जुयाल, हिमांशु आहुजा, डॉ. प्रीतम अपछ्यांण, प्रोफेसर वी.एन. खाली, प्रोफेसर सुरेखा डंगवाल, गणेश खुगशाल ’गणि’, डॉ. कुशल भंडारी, मदन डंगवाल, डॉ. शैलेन्द्र मैठाणी, डॉ. शैलेन्द्र तिवारी, जे.पी. पंवार, जहूर आलम, डॉ. ईशान डोभाल, बीना बेंजवाल, रमाकांत बेंजवाल, डॉ. नंदकिशोर हटवाल और स्टीफ़न फियोल (अब फ्योंली दास) की भावनाओं को, यादों को, क़िस्सों को, विचारों को पढ़कर जान सकते हैं।
किसी ने नंदा देवी राजजात पर उनके लेखन-चिंतन को उनका सबसे प्रमुख कार्य बताया है तो किसी ने केदारघाटी के चक्रव्यूह के वैश्विक मंचन और पंडवानी के दस्तावेजीकरण को। किसी ने बद्रिकाश्रम की रम्माण और मुखौटा नृत्य परंपरा के लिए किये गए उनके कार्य को सर्वोच्च बताया है तो अनेक विद्वान ढोल सागर के उनके गूढ़-गहन ज्ञान और सजग कर्म से सम्मोहित हैं।
कुछ विद्वान विपरीत परिस्थितियों के बीच प्रोफेसर पुरोहित के द्वारा गढ़वाल विश्वविद्यालय में स्थापित लोक कला संस्कृति निष्पादन केंद्र ( Centre for Folk performing Arts and Culture ) को अपनी संस्कृति साधना का शीर्ष मानते हैं। वस्तुतः ये सभी कर्म अपने आप में अप्रतिम हैं और सबका अपना अपना मूल्य है।
अनेक मित्रों ने उनके मानवतावादी दृष्टिकोण और उत्तराखंड की लोक संस्कृति और वाद्य यंत्रों के मूल ध्वजवाहकों को लेकर उनकी वेदना-संवेदनाओं, अनुभूति और परानुभूति को सराहा है। संपादक सेमवाल जी अनुभवी पत्रकार हैं। उन्होंने इस पुस्तक में प्रोफेसर पुरोहित द्वारा लिखित भगवती नंदा की राजजात परंपरा पर एक शोध पत्र और तीन नाटकों को भी सम्मिलित किया है।
एक चेतन, सहृदय और कृतज्ञ समाज को अपने बीच के खुशबूदार इंसानी फूलों को इसी तरह याद करना चाहिए..। शास्त्री जी को मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
(लेखक- चरणसिंह केदारखंडी, ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) स्थित राजकीय डिग्री कॉलेज में प्राध्यापक हैं।)