गढ़वालीसाहित्य

गज़ल (गढ़वाली)

- पयाश पोखड़ा

दुन्यांदरि को म्वाल भौ बिंगणि रैंद जिंदगि ।
कभि मैंगी कभि सस्ति बिकणि रैंद जिंदगि ।।

उत्यड़ौ फर उत्यड़ा अर ठोकरु फर ठोकर ।
बगत दगड़ कुछ-कुछ सिखणि रैंद जिंदगि ।।

वो कख अंदिन बौड़िक जो चलिगीं छोड़िक ।
फेरि दूर तलक यो कैथै दिखणि रैंद जिंदगि ।।

दै-दुसमनो का दगड़म दगड़्यों की पाटी मा ।
द्वि-ढै आखर पिरेम का लिखणि रैंद जिंदगि ।।

उमर थैं सर्या उमर मुठ्ठि मा करणा का बाना ।
मौत का ऐथर-पैथर खूब रिंगणि रैंद जिंदगि ।।

हवा की जिद्द देळमि द्यू जलाणा की हुईं चा ।
इलै अंध्यरा-उज्यळौं मा टिकणि रैंद जिंदगि ।।

सूना की चूंच मंडैकि भि कवा काळु ही राया ।
बस नेथ कुनेथ मा सदनि डिगणि रैंद जिंदगि ।।

कख दिखेंदी सुसैन बैद गौं-गल्या मा ’पयाश’ ।
अब दवै-दारु का बीचम झिंकणि रैंद जिंदगि ।।

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