‘गांधीवाद जैसी कोई वस्तु नहीं है और मैं नहीं चाहता कि मेरे पीछे मैं कोई संप्रदाय छोड़ कर जाऊं। मैंने अपने ही ढंग से सनातन सत्यों को हमारे दैनिक जीवन और समस्याओं पर लागू करने का केवल प्रयत्न किया है। …मैंने जो मत बनाए हैं और जिन परिणामों पर मैं पहुंचा हूं, वे किसी भी तरह अंतिम नहीं हैं। यदि इनसे अच्छे मुझे मिल जाएं, तो मैं इन्हें कल ही बदल सकता हूं। मेरे पास दुनिया को सिखाने के लिए कोई नई चीज नहीं है। सत्य और अहिंसा अनंत काल से चले आ रहे हैं। …मैं अहिंसा का उतना बड़ा पुजारी नहीं हूं, जितना कि सत्य का हूं; और मैं सत्य को प्रथम स्थान देता हूं तथा अहिंसा को दूसरा। मैं सत्य के खातिर अहिंसा को छोड़ सकता हूं। …मेरे मत के विरूद्ध धर्मशास्त्रों के प्रमाण दिए गए हैं; परन्तु मेरा यह विश्वास पहले से अधिक दृढ़ हुआ है कि सत्य का बलिदान किसी भी वस्तु के खातिर नहीं करना चाहिए। मेरे बताये हुए प्राथमिक सत्यों में जिनका विश्वास है, वे उनका प्रचार केवल उनके अनुसार आचरण करके ही कर सकते हैं। मैं केवल पुस्तकों के द्धारा संसार को यह विश्वास कैसे करा सकता हूं कि मेरे सारे रचनात्मक कार्यक्रम की जड़, उसका आधार, अहिंसा के पालन में है? केवल मेरा जीवन ही इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हो सकता है (पृष्ठ-231-232)।”
28 मार्च, 1936 को ‘गांधी सेवा संघ’ की सभा में बोलते हुए गांधी जी ने उक्त विचार व्यक्त किए थे। मीरा बहन की आत्मकथा में उल्लेखित ये विचार गांधी दर्शन को समझने और उसे आत्मसात करके जीवनीय व्यवहार में लाने के लिए मार्गदर्शी संदेश है।
मीरा बहन का मूल नाम मेडेलीन स्लेड था। उनका जन्म 22 नवम्बर, 1892 को इंग्लैंड में हुआ था। पिता एडमंड स्लेड बिट्रिश नौसेना में एडमिरल थे। वे कमांडर- इन-चीफ भी रहे। नौकरी के प्रारम्भ में वे सन् 1908-10 तक सपरिवार भारत में रहे थे। अभिजात्य वर्गीय माहौल में उन दो सालों के दौरान उनकी सुपुत्री मेडेलीन स्लेड भारत में रहते हुए भी इस देश की मूलभूत परिस्थितियों से अनभिज्ञ रही थी।
युवावस्था में वह यूरोप के विख्यात संगीतकार बीथोवन से प्रभावित हुई। सूरदास की तरह बीथोवन ने अपने दार्शनिक चिन्तन को संगीत में पिरोकर विश्वभर में लोकप्रियता प्राप्त की थी। फ्रेंच विचारक रोमां रोलां से हुई मुलाकात और उनकी पुस्तक ‘महात्मा गांधी’ पढ़ने के बाद मेडेलीन स्टेडियम के संपूर्ण जीवनीय विचार और व्यवहार बदल गए।
नतीजन, सन् 1925 में वह साबरमती आश्रम में गांधी जी के संरक्षण में आजीवन समाज सेवा का संकल्प लेकर भारत आईं। तब 33 वर्षीय मेडेलीन स्लेड का गांधी जी ने नया नाम मीरा बहन रखा।
मीरा बहन ने युवा अवस्था में समाजसेवा के लिए वैभव पूर्ण जीवन त्याग कर जीवन-भर के लिए कष्टमय जीवन अपनाया। यह उनके अदम्य साहस, पूर्ण समर्पण और निष्काम सेवा भाव का परिचायक था। स्वयं उन्होने स्वीकारा कि ”…सामुदायिक जीवन मेरे लिए एक टेढ़ी खीर था। लेकिन बापू के प्रति अपनी भक्ति के कारण मैंने अपनी अरुचि को दबा दिया। वास्तव में मैंने अपने को इतना अनुशासन-बद्ध बना लिया था कि मैं सचमुच मानने लगी थी कि मुझे यह जीवन पसंद है। किन्तु यह नहीं हो सकता कि हम अपने स्वभाव को दबाएं भी और तकलीफ़ भी न हो, भले ही तकलीफ़ कुछ समय के लिए बाहर दिखाई न दे (पृष्ठ- 86)।”
भारत में अपने प्रारम्भिक वर्षों में मीरा बहन ने भारतीय समाज के ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया। इस दौरान अधिकांश समय उन्होंने मौन व्रत की साधना की। मीरा बहन सन् 1925 से 1948 में गांधी जी के निर्वाण तक उनके साथ साधिका और सेविका के रूप में रही। अंग्रेज सत्ता की बर्बरता झेलना और जेल में रहना उनके लिए सामान्य बात थी। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ (सन् 1942) में गांधी जी की प्रतिनिधि के रूप में उन्होने अंग्रेज सरकार से होने वाली वार्ताओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
मीरा बहन ने सन् 1945 में रुड़की और हरिद्वार के बीच मूलदासपुर गांव में ‘किसान आश्रम’ और मई, 1947 में ‘किसान आश्रम’ का काम उत्तर प्रदेश ग्राम्य विकास विभाग को सौंप कर ऋषिकेश के पास वीरभ्रद में ‘पशुलोक’ की स्थापना की थी। ‘पशुलोक’ पहले सरकारी फिर सामाजिक संस्था ‘पशुलोक सेवा मंडल’ से संचालित होता था, पुनः सरकार ने उसे अपने नियंत्रण में ले लिया था। मीरा बहन ने उसके बाद टिहरी (गढ़वाल) के गेंवली गांव (भिंलगना घाटी) में ‘गोपाल आश्रम’ की स्थापना की और सन् 1952 से कुछ वर्षों तक वहीं से ‘बापूराज पत्रिका’ का 5 भाषाओं में प्रकाशन किया। परन्तु परिस्थितियां ऐसी बनी कि ‘गोपाल आश्रम’ का कार्य आगे नहीं बढ़ पाया। जीवट मीरा बहन ने कश्मीर में श्रीनगर के निकट ‘गऊबल आश्रम’ बनाया। परन्तु यह प्रयास भी सफल नहीं हो पाया। पुनः सन् 1957 में टिहरी गढ़वाल में चम्बा के पास मेलधार गांव में ‘पक्षी कुंज’ में उन्होंने अपना ठिकाना बनाया था। परन्तु पुनः युवावस्था का प्रेम बीथोवन और रोमां रोलां से प्रेरित होकर वे सन् 1959 को इग्लैंड होते हुए वियाना (आस्ट्रिया) चली गई और 20 जुलाई, 1982 को यहीं उनका निधन हुआ था।
मीरा बहन ने अपनी आत्मकथा पचास के दशक में लिखी थी। यह आत्मकथा अंग्रेजी में ‘The Spirit’s Pilgrimage’ (सन् 1960) और हिन्दी में ‘एक साधिका की जीवन- यात्रा’ (सन् 1970) नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद से प्रकाशित हुई थी।
यह पुस्तक 73 अघ्यायों में मीरा बहन की आध्यात्मिक जीवन – साधना के बहुआयामी रंगों का कैनवास है। अक्सर बीमार रहने वाली मीरा बहन भले ही शरीर से कुछ समय कमजोर हो जाती परन्तु दृढ़-इच्छाशक्ति के बल पर वह जीवनभर सामाजिक सेवा के लिए सक्रिय रही। वह सफेद धोती पहन सूत कातती देश के गांव-गांव घूमी, झोपड़पट्टी का जीवन जीते हुए कम से कम खर्च की जीवनशैली को अपनाया ताकि वह जरूरतमन्दों की जरूरतों को समझे, उसे महसूस करे और उसके निवारण के उपायों को हासिल कर उनको स्वावलम्बी जीवन जीने में मदद कर सके।
मीरा बहन की आत्मकथा गांधीजी और स्वाधीनता आन्दोलन के विविध अन्तचित्रों को उजागर करती है। स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े हुए प्रमुख व्यक्तित्वों के पारिवारिक और सामाजिक असहजता और कष्टकारी जीवन की कई घटनाएं हमें अचंभित करती हैं। परन्तु इन सबसे अलग इस पुस्तक में मीरा बहन गांधी के उन अनुयायियों को लताड़ भी लगाती है जो अक्सर ‘गांधी केवल हमारे’ के तहत उन्हें घेरे रहते थे। वे लिखती हैं कि ”बापू के आस-पास जो लोग थे उनमें शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे गांव से प्रेम हो; अधिकतर लोग वर्धा के उपनगर जैसी मगनवाड़ी तक ही जाना चाहते थे (पृष्ठ-232)।” गांधी के नजदीकी ऐसे लोगों की संकीर्ण मानसिकता का वह शिकार भी हुई।
‘साबरमती आश्रम’, ‘सेवा ग्राम’, ‘किसान आश्रम’, ‘पशुलोक’, ‘गोपाल आश्रम’ ‘गऊबल आश्रम’ और ‘पक्षी कुंज’ मीरा बहन के सुनहरे सपने थे, जिन पर वह जिंदगी भर प्रयोग करती रही। वह बार-बार असफल होती और फिर नए प्रयोगों में जुट जाती पर उन्होने जीवनीय संघर्षो से कभी हार नहीं मानी।
मीरा बहन को विश्व कल्याण की अपार सेवाओं के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1981 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया था।
• अरुण कुकसाल