History of LokParv Egas: उत्तराखंड में लोकपर्व इगास को मानने का परंपरा करीब 400 वर्ष पुरानी है। इगास को लेकर पर्वतीय समाज में दो तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। एक वीर भड़ माधों सिंह भंडारी से तो दूसरी भगवान राम के लंका विजय कर अयोध्या लौटने से जुड़ी हुई हैं। राज्य के कुमाऊं मंडल में इसे बुढ़ी दिवाली के नाम से जाना जाता है।
उत्तराखंड में लोकपर्व इगास बड़ी दीपावली के बाद 11वें दिन एकादशी की तिथि को मनाया जाता है। बीते दो वर्षों से राज्य सरकार इस दिन राजकीय अवकाश घोषित करती आई है। वहीं, बीते वर्षों की अपेक्षा इसबार इगास को लेकर उत्तराखंड से लेकर देश के कई हिस्सों में प्रवासी उत्तराखंड वासियों में खासा उत्साह दिख रहा है।
इगास की ऐतिहासिक मान्यता
उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में इगास मनाने की कहानी वीर भड़ माधों सिंह भंडारी से जुड़ी है। 400 वर्ष पूर्व वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टिहरी रियासत के राजा महिपति शाह के सेनापति थे। राजा ने एक बार माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत (भोटांतिक प्रदेश) के राजा से युद्ध करने के लिए दवापाघाट भेजा था। युद्ध लंबा चला तो इसीबीच दिवाली का पर्व भी आ गया। जब त्योहार के दिन तक कोई भी सैनिक वापस नहीं लौटा, तो ग्रामीणों ने उनके लौटने की उम्मीद खो दी और दिवाली ही नहीं मनाई। लेकिन माधो सिंह भंडारी सेना के साथ दीपवाली के 11वें दिन दवापाघाट का युद्ध जीत कर वापस लौट आए। उनके जीतकर लौटने के बाद ग्रामीणों ने दीपावली का उत्सव मनाया। उस दिन एकादशी तिथि होने पर इसे इगास का नाम दिया गया।
इगास से जुड़ी पौराणिक मान्यता
पौराणिक मान्यता के अनुसार जब भगवान राम 14 वर्ष बाद लंका विजय कर अयोध्या वापस पहुंचे थे, तो अयोध्या वासियों ने उनके आगमन पर अपने घरों को दीयों से रोशन किया था। तभी से दीपावली का त्योहार मनाया जाता है। कहा जाता है कि उत्तराखंड में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना देर से पहुंची थी। इसलिए यहां के लोगों ने 11वें दिन एकादशी को दिवाली मनाई, जिसे इगास कहा गया।
ऐसे मनाते हैं इगास
पर्वतीय समाज में भी दीपावली के लिए अपने घरों का रंगरोगन और साफ-सफाई की जाती है। 11वें दिन इगास पर घरों में पारंपरिक पकवान बनाए जाते हैं। सुबह गाय-बैलों की पूजा की जाती और रात को पूरे उत्साह के साथ ग्रामीण एकसाथ ‘भैला’ खेलते हैं।
ऐसे खेलते हैं भैला
इगास पर्व के लिए पेड़ों की छाल से रस्सियां तैयार की जाती हैं, जिससे चीड़, देवदार, भीमल, हिंसर आदि की सूखी लकड़ियों का गट्ठर बांधा जाता है। शाम को भैला खेलने से पहले उसकी पूजा कर तिलक किया जाता है। फिर ग्रामीण भैलों पर आग लगाकर इसे चारों ओर घुमाते हैं। पारंगत ग्रामीण भैलों से करतब भी दिखाते हैं। इसबीच ढोल दमाऊ की थाप पर शेष लोग पांरपरिक लोकनृत्य झुमैलो, चांचड़ी करने के साथ लोक गीतों भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू आदि लोक गीतों के अलावा मांगल, जागर आदि गाते हैं।
नोट : यह विभिन्न स्रोतों से ली गई जानकारी पर आधारित लेख है।