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गढ़वाल विश्वविद्यालय की स्थापना में ‘स्वामी मनमंथन’ की रही बड़ी भूमिका

• शीशपाल गुसाईं

Garhwal University Establishment Movement : भारत के इतिहास में दर्ज पेशावर कांड के नायक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली अक्टूबर 1969 को सात पर्वतीय जिलों में भ्रमण पर थे। इसी बीच विश्वविद्यालय का आंदोलन शुरू हो गया था। स्थानीय लोगों ने गढ़वाली जी से निवेदन किया कि वह इस आंदोलन को अपने हाथ में लें। उन्होंने मसूरी से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रभान गुप्ता और केंद्र सरकार को चेतावनी दी कि पर्वतीय जनपदों में यदि दो विश्वविद्यालय नहीं बनाए जाते हैं तो वह भूख हड़ताल पर बैठ जाएंगे। इसका असर होना शुरू हुआ। अंजनीसैण से इस आंदोलन की अगुवाई करने के लिए स्वामी मनमथन को बुलाया गया, क्योंकि स्वामीजी ने वहां पर चन्द्रबदनी मंदिर और कड़ाकोट पट्टी में स्थानीय जनता के सहयोग से पशु बलि प्रथा को रोक दिया था। कुप्रथाओं के खिलाफ सामाजिक चेतना के वह नायक बन रहे थे।

उत्तर प्रदेश पुलिस ने स्वामी मनमंथन और कुंज बिहारी नेगी को विवि आंदोलन में सबसे पहले निशाने पर लिया। तमाम मुकदमें इन पर दर्ज किए गए। 17 दिसम्बर 1971 को इन दोनों को पौड़ी से गिरफ्तार कर रामपुर जेल में डाल दिया गया था। इस खबर से सम्पूर्ण गढ़वाल मंडल आक्रोश में सड़कों पर आ गया। खिलाफत में बाज़ार, क़स्बे बंद रहे। वीर चंद्रसिंह गढ़वाली और अन्य नेता तो उत्तराखंड के ही थे, उन्होंने आंदोलन में रहना था ही। लेकिन सुदूर केरल के स्वामी मनमंथन को विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए फिक्र होनी बड़ी बात थीं। उनकी सोच एक दूरदर्शी नेता की थी, जिन्होंने अपना जीवन शिक्षा और सामाजिक सुधार के लिए समर्पित कर दिया था।

शिक्षा और सामाजिक न्याय के प्रति स्वामी मनमंथन की प्रतिबद्धता ने उन्हें उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में शैक्षिक अवसरों की कमी के खिलाफ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति को, उनकी पृष्ठभूमि या सामाजिक स्थिति की परवाह किए बिना, गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा तक पहुंच मिलनी चाहिए। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए स्वामी मनमंथन ने इस क्षेत्र में एक विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए संघर्ष का निर्णय लिया। हालांकि, विश्वविद्यालय की स्थापना के उनके प्रयासों को सरकार और शक्तिशाली निहित स्वार्थों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। विरोध से विचलित हुए बिना स्वामी मनमंथन ने विश्वविद्यालय के निर्माण की मांग के लिए शांतिपूर्ण विरोध और प्रदर्शन शुरू किया। उन्होंने स्थानीय समुदाय को एकजुट किया और इस उद्देश्य के लिए समर्थन जुटाने के लिए विभिन्न जागरूकता अभियान चलाए।

स्वामी मनमंथन के नेतृत्व और दृढ़ संकल्प ने स्थानीय लोगों को आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने एक छात्र गठबंधन बनाया और क्षेत्र में एक विश्वविद्यालय की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए विभिन्न रैलियों और सार्वजनिक कार्यक्रमों का नेतृत्व किया। उनके मार्गदर्शन में छात्र एक एकजुट शक्ति बन गए, जो विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए सक्रिय रूप से वकालत कर रहे थे। छात्रों के नेतृत्व में प्रदर्शन आयोजित करने के अलावा स्वामी मनमंथन ने शिक्षा और ज्ञान का संदेश फैलाते हुए गांवों में कई जन जागरूकता कार्यक्रम भी चलाए। उनके प्रयासों से ग्रामीणों में जागरूकता और जागरूकता बढ़ी, जिन्होंने सक्रिय रूप से इस उद्देश्य का समर्थन करना शुरू कर दिया।

स्वामी मनमंथन और स्थानीय समुदाय के सामूहिक प्रयास अंततः सफल हुए और सरकार को इस मुद्दे का समाधान करने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह विश्वविद्यालय इस क्षेत्र में शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन का प्रतीक बन गया है। विपरीत परिस्थितियों में स्वामी मनमंथन का समर्पण, दृढ़ता व सक्रियता की शक्ति के प्रमाण के रूप में काम करती रही। उनकी विरासत विश्वविद्यालय में छात्रों और शिक्षकों की पीढ़ियों को प्रेरित करती रहती है, जो शिक्षा और सामाजिक सशक्तिकरण के उनके दृष्टिकोण को बनाए रखने का प्रयास करते हैं।

विकट चुनौतियों का सामना करते हुए विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए संघर्ष स्वामी मनमंथन की यात्रा शिक्षा और सामाजिक सुधार के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण है। उनके नेतृत्व और सक्रियता ने गढ़वाल क्षेत्र के शैक्षिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी है। स्वामी मनमंथन का पूरा नाम उदय मंगलम चन्द्र शेखरन मनमंथन मेनन था। उनका जन्म केरल में 18 जून 1939 में हुआ था। श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम अंजनीसैण, टिहरी गढ़वाल में उनकी 6 अप्रैल 1990 को हत्या कर दी गई। उनके नाम पर विश्वविद्यालय के मुख्यालय चौरास में मेन ऑडिटोरियम है और विश्वविद्यालय उनके योगदान को सबसे पहले याद करता है। उन्होंने केरल से आकर पांचवी कर्मभूमि अंजनीसैण बनाई, और यहीं के होकर रह गए। उन्होंने पहाड़ में लोगों के जीवन में बड़े परिवर्तन लाए। 60, 70, 80 के दशक में अपने अधिकारों के लिए लोगों को जागरूक रहना, आंदोलन करना सिखाया! और उनके द्वारा ग्रामीणों के लिए अनेक विकास कार्यक्रम चलाये गए, वह सामाजिक सुधार के महान संत थे।



(लेखक शीशपाल गुसाईं का नाम उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकारों में शुमार है)


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