Special Report : उत्तराखंड सरकार ने प्रदेश के नागरिकों को अपनी कृषि अथवा गैर कृषि भूमि पर उगे पेड़ों को काटने की छूट दे दी है। 15 प्रतिबंधित प्रजातियों को छोड़कर लोगों को बाकी पेड़ों को काटने के लिए अब वन विभाग से अनुमति नहीं लेनी होगी। आम, अखरोट और लीची के फलदार पेड़ प्रतिबंधित प्रजाति में शामिल रहेंगे। प्रमुख सचिव आर.के. सुधांशु ने इस आशय की अधिसूचना अभी पिछले सप्ताह जारी की।
पिछले करीब दो साल से इस संबंध में होमवर्क चल रहा था। इसके लिए पहले वन मुख्यालय से शासन को प्रस्ताव भेजा गया। लम्बे विचार विमर्श के बाद शासन के विभिन्न स्तरों से फाइल आगे सरकी और अन्ततः इस प्रस्ताव को न्याय विभाग ने भी मंजूरी दे दी। आखिरकार इस संबंध में आदेश जारी हो गए। वस्तुत प्रदेश सरकार ने राज्य में उत्तर प्रदेश वृक्ष संरक्षण अधिनियम 1976 (अनुकूलन और उपांतरण आदेश, 2002) व उत्तर प्रदेश निजी अधिनियम, 1948 (अनुकूलन और उपांतरण आदेश, 2002) में संशोधन का फैसला किया था। वन मुख्यालय ने दोनों अधिनियमों में संशोधन का प्रस्ताव तैयार कर शासन को भेजा। शासन स्तर पर न्याय और विधायी की प्रक्रिया के बाद इन्हें लागू कर दिया गया है।
इस मामले में सरकार की नीयत पर संदेह का कोई कारण नजर नहीं आता है। निसंदेह राज्य सरकार ने लोगों की मांग पर ही ऐसा किया है और इस तरह की मांग विधानसभा में भी उठी थी, उसके बाद ही राज्य सरकार ने यह निर्णय लिया है। यहां तक तो सब ठीक है लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भयावह है जो प्रदेश के हरित आवरण को क्षति पहुंचने का सबब हो सकता।
कुछ लोग इस बात को नकारात्मक विचार ठहरा सकते हैं। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि जिस तरह प्रदेश में माफिया सक्रिय है, उसे देखते हुए लगातार कम हो रहे पेड़ों पर धड़ाधड़ आरियां चलने लगेंगी और धरती का आवरण सिकुड़ता चला जायेगा।
बिल्डरों के लिए तो ताजा आदेश वरदान से कम नहीं है। यह आशंका इसलिए भी बलवती होती है कि जब तक शासन स्तर पर सिर्फ विचार विमर्श चल रहा था, उसी दौरान अकेले देहरादून में ही कई पेड़ों पर आरियां चल गई थी, अब जबकि विधिवत आदेश जारी हो चुका है, ऐसे में कल्पना की जा सकती है कि धरती का हरित आवरण कितना बच पाएगा?
तस्वीर का दूसरा पहलू बेहद अहम है। राज्य सरकार द्वारा हाल में वृक्ष संरक्षण अधिनियम 1976 के प्रावधानों को कमजोर किए जाने का लाभ आम लोगों को मिले या नहीं लेकिन शहरी क्षेत्रों की जमीन पर गिद्ध दृष्टि जमाए लोगों को जरूर मिल जायेगा। सच तो यह है कि यह सीधे तौर पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का सबब बन सकता है।
एक उदाहरण से इस चिंता को समझने की कोशिश करते हैं। बीते दिनों जब तक कानून में सिर्फ संशोधन की बात विचाराधीन थी तब राजधानी देहरादून के नेहरुग्राम की अपर गढ़वाली कॉलोनी में वृक्ष संरक्षण अधिनियम में संशोधन के मात्र प्रस्ताव की ख़बर के आधार पर पेड़ काटने की घटना हुई थी। वहां कुछ लोग आए, उन्होंने एक भूस्वामी से कहा कि आपके आंगन का पेड़ काटने के लिए सरकार ने छूट दे दी है। भूस्वामी के हामी भरते ही तुरंत माफिया ने दो पेड़ काट डाले और सब कुछ समेट कर चलता बना।
वन विभाग को खबर तब मिली जब माफिया सब कुछ वाहन में लाद कर जा चुका था। विभाग ने मामला जरूर दर्ज किया लेकिन बहुमूल्य संपदा तो खत्म हो गई है। यह एक उदाहरण है। ऐसे दर्जनों मामले हो चुके हैं लेकिन परिणाम कहीं से उत्साह नहीं जगाता। अब जबकि निजी अथवा कृषि भूमि पर मात्र 15 प्रतिबंधित प्रजातियों को छोड़ कर शेष वृक्षों को काटने की अनुमति मिल गई है तो कल्पना कीजिए कि कितनी तेजी से माफिया अपने काम को अंजाम देगा।
कह सकते हैं कि अब वन माफ़िया घर-घर जाकर लोगों से पेड़ कटवाने के लिए लोगों को प्रेरित करेगा। यह भी हो सकता है कि वह इसके लिए या तो भू स्वामी को प्रलोभन देगा या कोई खतरा दिखाएगा और अपना उल्लू सीधा कर नौ दो ग्यारह हो जायेगा। नतीजे का अनुमान आप खुद लगा सकते हैं कि देहरादून ही नहीं पूरे प्रदेश का हरित आवरण कितना बच पाएगा।
संरक्षित वन क्षेत्रों में रोजाना प्रतिबंधित पेड़ प्रजातियों के आपराधिक कटान की खबरें किसी से छुपी नहीं हैं। अभी हाल में पुरोला और जखोली में प्रतिबंधित काजल की लकड़ी को वन विभाग ने पकड़ा था। जब कटान हो रहा होता है तो तब वन विभाग को पता नहीं लगता है लेकिन जैसे ही वन उपज का परिवहन होता है तो कभी-कभार मामला विभाग के संज्ञान में आ जाता है।
ठीक उसी तरह जिस तरह जंगल में आग लगने के शुरुआती दौर में विभाग को खबर नहीं होती लेकिन जब आग बेकाबू हो जाती है तो वन विभाग का अमला हरकत में आता दिखता है। यह अलग बात है कि विभाग वनाग्नि की घटनाओं को रोकने में आमतौर पर लाचार ही दिखता रहा है। यह बात आईने की तरह एकदम साफ है। पाठक इस चिंता को कितनी गंभीरता से लेते हैं यह देखना होगा। आप अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें।