राजनीति का ‘पिल्लाकाल’ (व्यंग्य)

पिल्ला शब्द की उत्पति संभवतः कुत्ते के बच्चे के संदर्भ में ही हुई होगी। कुत्ते को सभ्य भाषा में आप ‘स्वान’ भी कह सकते हैं। लेकिन ‘पिल्ला’ या ‘पिल्ले’ को अगर कोई और नाम देंगे, तो उसका अर्थ- अनर्थ हो जाएगा। वैसे भी यह इंस्टेट युग है। गंभीर होना आउटडेटेड होना माना जाता है। इसलिए ‘पिल्ला’ उर्फ ‘पिल्ले’ के पर्याय ढुढ़ने की बजाए सिर्फ ‘पिल्ला’ पर ही टिके रहें। कृपा आने के चांसेज भी यहीं से शुरू होते हैं।
तो बात है राजनीति के पिल्ला काल की। पिल्ला यूं तो हर कालखंड में, हर भूगोल में, हर वर्ग में उपयुक्त संदर्भों के साथ उपयोगी रहा। किंतु, पिल्ला जितना दुत्कार वाणी के लिए ‘लाभ स्थान’ में रहा, उससे कहीं अधिक राजनीति में यह हमेशा ‘उच्च स्थान’ में रहा है। आप कहेंगे यह तो ‘स्लीप ऑफ टंग’ का मामला हो सकता है! लेकिन नहीं, राजनीति में यह ‘थॉट ऑफ स्ट्रैटजी’ का हिस्सा भी होता है।
इस तकनीकी युग के हालिया अतीत को ‘गूगल’ करें तो आपको राजनेताओं के बरक्स ‘आईटी सेल’ इस काम में सर्वाधिक पारंगत मिलेंगे। कभी-कभी इन्हीं आईटी सेलों से राजनेता भी ‘इंफ्लूयेन्सित’ हो जाते हैं और लगे हाथों पिल्लाकाल का उपयोग कर लेते है। नए दौर में यह ‘बद से बदनाम भला’ की उक्ति के काम भी आता है। यानि कि कभी-कभी ‘नजरों में चढ़ना’, ‘नंबर बढ़ाना’, ‘लाइमलाइट होना’ आदि कहावतों के लिए भी ‘पिल्लाकाल’ तुरप का पत्ता साबित हो जाता है। इसे ‘लक बाय चांस’ के तौर पर भी आजमाया जा सकता है या या आजमाते हैं।
तो साहब अब पते की बात कि ‘चुनावकाल’ में ‘पिल्लाकाल’ की उपयोगिता पर गुणीजन निबंधों के पैबंध ही नहीं लगा सकते बल्कि नॉवल भी रच सकते हैं। हालांकि अब नॉवल बांचने का जमाना नहीं। इसलिए ‘फोटोशॉप’ और ‘मंच-शॉप’ इसके लिए सर्वाधिक उपयोगी स्थल बताए गए हैं। परिणाम भी बतर्ज ‘हाथ कंगन को आरसी क्या..’ के जैसे मिल जाता है। लिहाजा, गर ‘कृपा’ चाहते हैं तो ‘पिल्लाकाल’ में भौंकने की बजाए ‘इंजॉय’ कीजिए।
• धनेश कोठारी