
बीते रोज डाक दिवस था और अगले कुछ दिन डाक महकमा डाक सप्ताह मना रहा है। इसी बहाने पुरानी स्मृति ताजा हो गई। बात अस्सी के दशक की होगी जब हम भी शब्द मिलाकर किसी तरह पढ़ तो लेते थे पर लिखना बिल्कुल नही आता था। यह वही दौर था जब मेरे माता पिता के उम्र के लोग या तो अनपढ़ थे या फिर बहुत कम पढ़े लिखे।
तब पहाड़ों के पोस्टमैन साहब केवल चिट्ठी पत्री को एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचाने के माध्यम नही थे, वह घर का सदस्य जैसा था। इसलिये तो जब भी डाकिया दूर प्रदेश में रह रहे बेटे की चिट्ठी लेकर आता तो इंतजार में बैठी माँ कहती थी, बेटा तू ही बांच यानी पढ़कर सुना दे।
क्या जीवन रहा होगा कि बेटे की चिट्ठी में ऐसा कुछ भी नही होता था कि माँ यह कह दे कि केवल मुझे सुनाना। गांव के चौबारे पर चिठी पढ़ी जाती थी। गांव कुटुंब के लोग मौजूद होते थे। चिठी भी निराश नही करती थी, क्योंकि उसमें लिखा होता था माँ मेरा प्रणाम गांव कुटम्ब के सब लोगों को कहना। यह चिठी एक बार नही कई बार पढ़ाई जाती थी। डाकिया के बाद घर मे जब भी कोई पढ़ा लिखा आता उससे पढ़ाई जाती थी। इसी तरह अपनों को चिठी लिखाई जाती थी।
पोस्टमैन अपने साथ लिफाफा, अन्तर्दशीय लेकर चलते थे। रास्ते मे बहुत से लोग मिलते और वहीं पर चिट्ठी लिखवाते थे। लिखवाने का तरीका भी रोचक होता था था। पोस्टमैन एक एक लाइन लिखने के बाद सुनाता रहता था, ताकि कोई कमी होने पर सुधार किया जा सके।
यही नहीं उस दौर में चिट्ठियाँ बहुत होती थी। इसलिए उसको बांटने के लिए स्कूल के बच्चों का सहारा भी लिया जाता था। तब स्कूली बच्चे डाकिया के द्वारा दी गई चिट्ठी को गांव तक और गांव से दी गई चिट्ठियाँ लेटर बॉक्स तक पहुंचाने का काम करते थे।
(लेखक अनिल चमोली पेशे से पत्रकार हैं। )