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रोचक किस्साः बैसाख के थौळ (मेले) में जब मैंने 20 रुपये चुराए..

• अनिल चमोली / 

Interesting Anecdote: दगड़ियों (साथियों) बैसाख का महीना शुरू हो चुका है। यह महीना पहाड़ में कौथिग (मेलों) के लिए जाना जाता है। इसलिए बैसाख को चाहकर भी भूल नहीं सकते। थौळ (मेले) का मतलब जीवन का हर रंग रूप जो अब नहीं दिखता।

चैत के पूरे महीने देहरी पर फूल डालने के बदले जो पैसे मिलते थे, उसको बचा लेते। अपने औजी से कपड़े का एक बटुवा बना लेते और उसमें इन पैसों को रख लेते थे। यह सोचकर कि फलां कौथिग में खर्च करेंगे। मेले में जाकर मेरी और लगभग सबकी पहली पसंद चटक लाल रंग की आइसक्रीम होती थी, जो उस दौर में 25 पैसे की मिलती थी। इसके बाद आलू के छोले जो लाल भूटीं मिर्च के साथ मिलते थे और फिर एकदम लाल जलेबी। वह भी मुशिकल से एक घेरी ही ले पाते थे। घर आते समय दादी और मां का ख्याल भी होता था। इसी एक दो रुपये में जो लेते थे, जरा बचा लेते और घर ले आते। मेले में जो सबसे ज्यादा अपनी ओर खींचती, वह थी हाथ की घड़ी। जिसकी सूई चाबी को घुमाकर आगे बढ़ती थी, पर यह महंगी होती थी।

मुझे याद है एक बार मैंने सपना पाला कि 14 गते (तिथि) भैरवनाथ के मेले में अपने लिए घड़ी लेनी है। मेले से ठीक कुछ दिन पहले मेरे पिताजी ने परिवार के खर्चे के लिए कुछ रुपये भेजे थे। मेरी मां दुगड्डा से कुछ जरूरी खरीददारी करके आई और बचे रुपये सिरवाणी (तकिए) में रख दिए। मैंने वह पैसे चुराए और माचिस की डिब्बी में बंद कर बैलों के कमरे के ऊपर द्वार (दरवाजे) पर रख दिए। सच यह है कि मुझे नहीं पता था कि यह 20 रुपये का नोट है, पर मुझे उससे हाथ की घड़ी खरीदनी थी।

घर से 20 रुपये गायब होने का मतलब कि आज के दौर की लाखों की डकैती। तब मैं बेसिक में पढ़ता था। पैसे छुपाकर स्कूल चला गया। मां स्कूल के बाहर आकर खड़ी हो गई, क्योंकि जो मेरे गुरुजी थे वह मां के नाते में जेठ थे। इसलिए अंदर आने की हिम्मत न हुई। पर मेरे गुरुजी कम मेरे बढाजी समझ गए। वह खुद मां के पास आए और बोले ब्वारी (बहू) क्यों आए हो। मां ने बोला अनिल को भेज दो। मैं आया, मां ने 20 रुपये के बारे में पूछा और मैं मुकर गया कि मुझे नही पता। पूरे गांव में हल्ला मच गया। देवी देवता नाचे पर कोई सच नहीं बता सका।

यह तमाशा कई घंटे चला। अब मैं घबरा गया पर स्वीकार नहीं किया कि चोरी मैंने की। तब मेरे चाचा की मां जो मेरी दादी थी उन्होंने कहा जो सच बताएगा उसको मैं एक पपीता दूंगी। मैंने सच उगल दिया और माचिस की डिब्बी लेकर आ गया। 20 रुपये सामने रख दिए। जब लोगों ने पूछा कि तूने पैसे क्यों चुराये तो मैंने भी सच बता दिया कि मुझे हाथ की घड़ी खरीदनी थी।

अब 14 गते फिर आएगी पर न मेला होगा न वह लोग। न वह जीवन न वह दौर की जब एक रुपया पाना भी एक सपना होता था। क्या कोई मेरे उस जीवन को लौटा सकता है?


(लेखक अनिल चमोली वर्तमान में अमर उजाला समाचार पत्र में सीनियर पत्रकार हैं।)

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