साहित्यहिन्दी

स्त्री के पर्यायवाची (हिंदी कविता)

• लोकेश नवानी

स्त्री का पर्यायवाची
अबला है न सबला
इन शब्दों में तो पहले ही
बेचारगी झलकती है
भीख में दिए हों जैसे
स्त्री का पर्यायवाची हैः रस्सी
जिससे बँधा है
ब्रह्मांड का छोर और जीवन का राग!

स्त्री के पर्यायवाची
वामा, वनिता, वधू भी नहीं हो सकते
मानो ये कहकर कोई बड़ा तमगा दे दिया हो स्त्री को
पर बहुत कम अर्थविस्तार है इनका
स्त्री का पर्यायवाची हैः पुल
उसी की तरह जोड़ती है स्त्री
नाते-रिश्ते, दुनियादारी
और संवाद।

स्त्री के पर्यायवाची
कान्ता, कामिनी, भामिनी, मानिनी भी उपयुक्त नहीं हैं
फालतू की संज्ञाएँ या विशेषण हैं सब
स्त्री का पर्यायवाची हैः नदी
उसी के सदृश जीवन को सींचती है स्त्री!

स्त्री के पर्यायवाची
रमणी, ललना या सुन्दरी की क्या अर्थसत्ता है
सिर्फ क्रूर मज़ाक है ये
स्त्री का पर्यायवाची हैः खेत
जिसकी तरह सबका पेट भरती है स्त्री!

स्त्री न बीन है न रागिनी
माया, नटनी, ठगिनी भी नहीं
निरा वाक्छल है ये
खामखाँ का खटराग
स्त्री का पर्यायवाची हैः अमरबेल
जो तपते घाम के बाद भी नहीं सूखती
नहीं मरता कभी भी उसका प्यार
दुनिया के खत्म होने तक!

रस्सी, पुल, खेत, नदी
और अमरबेल है स्त्री!

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