ढाई दशक बाद आयोजित राजराजेश्वरी व बाणासुर दिवारा यात्रा संपन्न
पंद्रह दिनों तक देवस्थानों के भ्रमण के बाद पहुंची लमगौंडी, हजारों श्रद्धालु बनें साक्षी

Rajarajeshwari-Banasur Divara Yatra : गुप्तकाशी। द्वापर युग में हिमालय के महाप्रतापी राजा और परम शिव भक्त बाणासुर और देवभूमि की अधिष्ठात्री देवी आदि शक्ति राजराजेश्वरी की दिवारा यात्रा बुधवार को मनकामनेश्वर मंदिर लमगौंडी (बामसू) में हवन पूजन और भंडारे के साथ संपन्न हो गई।
करीब ढाई दशक के अंतराल के बाद एक पखवाड़ा पूर्व शुरू दिवारा यात्रा बदरीनाथ, केदारनाथ, गुप्तकाशी, त्रियुगीनारायण, कालीमठ, ऊखीमठ व अन्य तीर्थों के भ्रमण के बाद बुधवार को जन्माष्टमी पर्व पर दिवंगत अमरनाथ पोस्ती द्वारा स्थापित मनकामनेश्वर मंदिर में संपन्न हो गई। आराध्य देव बाणासुर और भगवती राजराजेश्वरी की इस दिवारा यात्रा में शामिल श्रद्धालु पीले रंग के वशिष्ट वस्त्रों में नंगे पांव पैदल भीषण शीत में बदरी केदार धामों तक पहुंचे। कहीं उनके हौसले नहीं डिगे। खास बात कि पूरी यात्रा के दौरान किसी भी भक्त की सेहत प्रभावित नहीं हुई।
पूरे अनुष्ठानिक ढंग से आयोजित यात्रा के दौरान विधिविधान के साथ तीर्थों में देश के विभिन्न भागों से आए श्रद्धालु भी भाव विभोर दिखे। बदरीनाथ, केदारनाथ मंदिर समिति ने दिवारा यात्रा का भरपूर स्वागत किया। वहीं कई जगह आम लोगों ने भी जनसामान्य और विशिष्ट लोगों ने यात्रा का पुष्प वर्षा, अक्षत, धूप दीप और अर्घ्य लगा कर स्वागत किया। कई मायनों में यह दिवारा यात्रा ऐतिहासिक रही।
दिवारा यात्रा समिति के अध्यक्ष पुष्पेंद्र प्रकाश शुक्ला (मेरठवाल) की अगुवाई में पदाधिकारियों ने जिस मनोयोग से इस आयोजन को सफल बनाया, व्यवस्था की दृष्टि से यह एक नजीर बन गया है। भविष्य में जो भी इस दायित्व को निभाएगा, उसे इससे अधिक प्रयास करने होंगे और अपनी संस्कृति के रक्षण, संवर्द्धन और परिमार्जन में लमगौंडी का कोई सानी नहीं है।
माना जाता है कि दिवारा यात्रा से देव शक्तियां जागृत होती हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो यह सनातन का अभ्युदय है जिसका ध्येय सर्वे भवन्तु सुखिनः है। इस दृष्टि से क्षेत्रवासी भी नवीन ऊर्जा से ओतप्रोत होते हैं। कहना न होगा कि इस बार की दिवारा यात्रा में न्यूनतम तीन पीढियां इस विशिष्ट आयोजन की साक्षी रही और उससे बढ़कर धियानियों ने जिस भाव से अपनी उपाथिति दर्ज की वह अपने आपमें अद्भुत रही है।
एक छोटे से गांव में हजारों लोगों का सम्मिलन भावातिरेक तो पैदा करता ही है। कई वर्षों से मायके न आ पाने वाली धियानियां भी इस बहाने एकत्र हुई। यानी इस भूमि के आराध्य देव बाणासुर तथा भगवती राजराजेश्वरी ने कई लोगों को एक कर दिया।
दिवारा यात्रा का पौराणिक इतिहास
महाप्रतापी राजा बाणासुर अपने कालखंड में देवाधिदेव भगवान शिव की कृपा से हिमाचल प्रदेश के मणिमहेश से नेपाल के डोटी तक सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र के शासक रहे। भगवान शिव के वह इस कदर परम भक्त थे कि भगवान कृष्ण के विरुद्ध बाणासुर की रक्षा के लिए भगवान शिव ने शस्त्र तक उठा लिए थे। माना जाता है कि कैलाश गुरुकुल के स्नातक बाणासुर के बाद भगवान शिव को उनके बाद कोई अन्य प्रिय शिष्य नहीं मिला।
केदारघाटी शैव मत का प्रमुख क्षेत्र है तो इसका बड़ा कारण बाणासुर ही है। इतिहासकार मानते हैं कि हिमाचल प्रदेश के मणिमहेश से लेकर पिथौरागढ़ में सौर गढ़ तक बाणासुर के अनेक किले थे। इनमें से ही एक लमगौंडी जिसका पूर्व नाम बामसू वर्णित किया गया है, स्कंद पुराण में शोणितपुर नाम से उल्लेख मिलता है।
ज्ञातव्य है कि ऊखीमठ को दानवीर राजा बलि के पुत्र बाणासुर की कन्या ऊषा का महल था। उसे गुप्तकाशी के मंदिर में माता पार्वती ने ललित कलाओं, नृत्य, गीत संगीत की शिक्षा दी थी। एक पौराणिक प्रसंग इस तरह है कि भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को उषा की सहेली चित्रलेखा ऊखीमठ ले आती है।
बाणासुर को जब इसका पता चलता है तो अनिरुद्ध को शोणितपुर में कैद कर दिया जाता है। उसको मुक्त करने के लिए ही पहले भगवान कृष्ण के पुत्र प्रह्लाद और बाद में खुद द्वारिका से कृष्ण युद्ध भूमि में उतरते हैं तो बाणासुर की रक्षा के लिए भगवान आशुतोष स्वयं शस्त्र उठा लेते हैं। अन्ततः ऊषा और अनिरुद्ध का ऊखीमठ के राजमहल में ही विवाह हो जाता है, वह विवाह वेदिका आज भी विद्यमान है। इतिहासकार स्व. शिवप्रसाद नैथानी ने गढ़वाल की संस्कृति पुस्तक में इस तथ्य का उल्लेख किया है। इन तथ्यों की पुष्टि के लिए उन्होंने शोणितपुर सहित पूरे क्षेत्र का विस्तृत भ्रमण भी किया था।