• दिनेश शास्त्री /
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड के लोगों की अन्य क्षेत्रों से कम नहीं बल्कि अग्रणी भूमिका रही है। अंग्रेजों और राजशाही की दोहरी ग़ुलामी के विरूद्ध संघर्ष में देश की 584 देशी रियासतों में टिहरी गढवाल की जनता का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। यहां हुई रक्तहीन क्रांति ने अलग इतिहास लिखा है। ब्रिटिश गढ़वाल की ही तरह टिहरी के लोगों ने भी समान रूप से स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया, बल्कि कहना चाहिए कि द्विगुणित योगदान दिया। इसमें दो राय नहीं हैं कि टिहरी की रक्तहीन क्रान्ति के सूत्रधार अमर शहीद श्रीदेव सुमन (Shridev Suman) थे।
टिहरी जेल में 84 दिनों के लंबे ऐतिहासिक आमरण अनशन के बाद आज के ही दिन करीब 78 वर्ष पहले 25 जुलाई 1944 को जिन रहस्यमय परिस्थितियों में उनका निधन हुआ, वह एक ऐसी परिघटना थी, जिसने संपूर्ण समाज को उद्वेलित कर दिया। राजशाही की क्रूरता देखिए कि उस रात जेलकर्मियों ने मध्यरात्रि के समय के सुमन के मृत शरीर को चुपके से भिलंगना नदी में विसर्जित किया। वह एक ऐसा रहस्य है जो लोगों को आज भी क्रोध से भर देता है।
आप जानते होंगे श्रीदेव सुमन का जन्म टिहरी रियासत के जौल गांव में 25 मई 1916 को हुआ था। हिन्दी मिडिल परीक्षा उतीर्ण करने के बाद वे पढ़ने के लिए रियासत से बाहर चले गए। दिल्ली और लाहौर से प्रभाकर व साहित्य रत्न परीक्षा पास करने के बाद कुछ समय तक उन्होंने देहरादून के सनातन धर्म स्कूल में अध्यापन कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने हिन्दी पत्रबोध नामक पुस्तक प्रकाशित की और अनेक समाचार पत्रों का संपादन किया।
मात्र 15 वर्ष की आयु में 1930 के नमक सत्याग्रह आंदोलन से लेकर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन तक वे चार बार जेल गए। राजा को ‘बोलंदा बदरीनाथ’ मानने वाले समाज में अपने सपनों को साकार करने और शोषण का प्रतिकार करने की अलख जगाना उस दौर में संभव भी नहीं था, लेकिन सुमन ने उस असंभव को अपने प्राणों की आहुति देकर संभव बनाया। उनमें स्वराज के प्रति इस कदर जज्बा था कि 19 नवम्बर 1943 को आगरा जेल से मुक्त होने के बाद वे सीधे टिहरी रियासत आ गए और सामंती शासन से मुक्ति के आंदोलन में जी-जान से जुट गए।
राजशाही को यह कैसे बर्दाश्त होता, 30 दिसम्बर 1930 को उन्हें निरंकुश सत्ता ने चंबा के निकट गिरफ़्तार कर टिहरी जेल की काल कोठरी में ठूंस दिया। यह उनकी अंतिम जेल यात्रा थी। यहां से वे जीवित बाहर नहीं आ सके। इसी काल कोठरी में 84 दिन के आमरण अनशन के बाद रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। उसके बाद विद्रोह की जो ज्वाला भड़की वह आजादी के बाद ही शांत हुई।
यह अलग बात है कि देश की आजादी के साथ यहां राजशाही बनी रही, लेकिन अगले वर्ष 1949 में टिहरी रियासत का भारत में विलय होने के साथ टिहरी के लोगों ने भी आजादी की हवा में सांस ली।
(वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री )