
उत्तराखंड ही नहीं देश की राजनीति में भी हरीश रावत एक बड़ा नाम है। कई दशकों के राजनीतिक सफर में उन्हें केंद्रीय राज्यमंत्री और फिर वर्ष 2013 में मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। जिसमें 2016 का साल उनके लिए बेहद खराब अनुभवों वाला रहा। किसी तरह अपनी सरकार तो बचा ले गए, लेकिन इस वाकये से प्रदेश की सियासत में जिस तरह की कड़वाहट बिखरी उसका कसैलापन अब तक महसूस किया रहा है। अब जब 2022 का चुनाव करीब हैं तो पुराने जख़्म हरे हो रहे हैं। शिगूफे और पुराने वाकये फिर से सुर्खियों में हैं।
पिछले दिनों कुछ मीडिया ग्रुप्स के पब्लिक सर्वे में हरीश रावत को ‘सबसे अधिक पसंदीदा मुख्यमंत्री’ होने का दावा किया गया। हरदा ने भी इसे खुद के लिए पीड़ानाशक जैसा माना और बताया भी। लगे हाथ अपनी संभावनाओं के रास्तों को साफ और निष्कंटक रखने के लिए रणनीतिक हथियारों का इस्तेमाल भी शुरू किया। मगर, यहीं वह ‘अपनो’ और ‘बाहरी’ के निशाने पर भी आ गए।
हरीश रावत भी मानते हैं कि जब भाजपा ने प्रदेश में तीन मुख्यमंत्री बदले और कारण भी साफ नहीं किया तो जनता में इसका अच्छा संदेश नहीं गया। मगर, उन्होंने अपने कई बयानों में इसके लिए भाजपा के ही कुछ नेताओं को कटघरे में खड़ा किया, बल्कि मीडिया प्लेटफार्म तक में खूब जोर-शोर से उछाला भी। जो कि उनकी रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है। स्वाभाविक है कि संबंधित को यह नागवार गुजरना ही था।
दूसरी तरफ हरदा ने सीनियर होने के नाते कांग्रेस में नजाकत को देख- समझ ‘घेरबाड़’ भी शुरू कर दी। ‘उज्याड़ू बल़्द’, महापापी जैसी संज्ञाएं उनकी इसी रणनीति का हिस्सा बताई जाती हैं। नतीजा, अंदर और बाहर दोनों तरफ असर भी दिख रहा है। याने, हरदा जिनके ‘खुद’ आड़े आ रहे हैं वह, और जो उन्हें अपनी भविष्य की राजनीतिक के ‘आड़े’ समझ रहे हैं वह, दोनों के बीच की जुगलबंदी मीडिया की सुर्खियों में है।
ऐसे में सवाल कि क्या मौजूदा राजनीति में हरदा ‘सच’ में ‘आड़े’ आने लगे हैं? या हथियार डालने के लिए उनपर यह प्रेशर पॉलिटिक्स का हिस्सा है? क्या हरदा महायुद्ध से पहले हरदा खुद ‘समझौतों’ की मजबूरी में घिर जाएंगे? या फिर यह ‘सर्वे के दावों’ को पर डेंट करने का समझा-बुझा तरीका है?
खैर, हो जो भी, आने वाले दिनों में उत्तराखंड के राजनीति में कड़वाहट की डोज बढ़ेगी और अंततः उत्तराखंड को उसी के बीच अपने लिए रास्ता भी तलाशना पड़ेगा, यह तय है।