उत्तराखंड राज्य की स्थापना को 21 वर्ष पूरे हो गए हैं, तो 27 बरस पूराने दिनों की यादें भी ताजा हो गई। आज बात 2 अक्टूबर 1994 रामपुर तिराहा कांड के बाद के दिनों की। हम लोग 1 अक्टूबर की रात को दिल्ली कूच के लिए कैलासगेट मुनिकीरेती से निकले थे। ज्वालापुर से ही हमें रोकने की कोशिशें शुरू हो चुकी थी। किसी तरह ज्वालापुर, बहादराबाद, रुड़की और नारसन की बाधाओं को पार कर हम यानि हजारों आंदोलनकारी सुबह करीब 5 बजे रामपुर तिराहा पहुंचे थे। पता चला कि तब तक बीती रात को रामपुर तिराहा में वो सब हुआ, जिसकी कल्पना भी सिंहरन पैदा कर देती है।
हम यहां से आगे बढ़ना चाहते थे। लेकिन यूपी पुलिस की बाधा ने किसी को आगे नहीं जाने दिया। करीब 6 बजे ताबतोड़ फायरिंग हुई, हजारों की भीड़ में कई हताहत हुए। शहीद सूर्यप्रकाश थपलियाल हमारी बस से ही रामपुर तिराह पहुंचा था। इस फायरिंग के दौरान हम किसी तरह बचे, और देर शाम के करीब अपने घर वापस लौटे। लेकिन उस लोमहर्षक घटना की सिंहरन अब भी हमारे दिलो दिमाग में ताजा थी। जो कि आज भी विस्मृत नहीं होती।
3 अक्टूबर 1994 को हम फिर से कैलासगेट में सक्रिय हुए। उस दिन बीते दिनों से ज्यादा हलचल थी। सूर्यप्रकाश थपलियाल की शहादत से सबमें गम के साथ गुस्सा था। शाम तक भीड़ सड़कों पर आने लगी। सूर्यप्रकाश की अंतिम यात्रा में हुजूम उमड़ा और इस तरह यह दिन बीता। अगले दिन फिर से आंदोलन अपने रुटीन से ज्यादा सक्रिय लगा। हर कोई गम और गुस्से को बाहर निकालना चाहता था। लेकिन सबने बेहद समझ बूझ से आंदोलन को जारी रखा।
इसी बीच ऋषिकेश में आंदोलन के हिंसक होने की आशंका में कर्फ्यू लग गया। रैपिड एक्शन फोर्स (आरएएफ) के साथ पीएसी के जवान चप्पे-चच्पे पर तैनात हो गए। नटराज चौक (वर्तमान में इंद्रमणि बडोनी चौक) पर एक युवक को गोली लगी। कई अन्य घायल हुए। कैलासगेट जरूर तब भी कर्फ्यू से बचा था। तब मेरा घर ऋषिकेश की सीमा पर कर्फ्यू की हद में था। मगर, आंदोलन की सक्रियता कैलासगेट क्षेत्र में पहले से थी। रोज वहां जाना जरूरी था। खैर, चौकन्ना होकर, छुपते छुपाते हमेशा की तरह वहां पहुंच ही जाता था।
तब तक पहाड़ में गढ़वाल क्षेत्र भी आंदोलन की आग से सुलग उठा था। हालात बिगड़ते देख तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने 4 अक्टूबर 1994 को वहां के कस्बों नगरों में कर्फ्यू की नियत से फोर्स को रवाना कर दिया। हमने कैलासगेट में आरएएफ के वाहनों को पहाड़ जाते देखा, तो खून खौल उठा। हम कुछ युवाओं ने उन्हें रोकने की सोची। आपस में मंत्रणा की कि क्या किया जा सकता है।
आखिरी में फैसला किया कि गूलर, व्यासी आदि की तरफ कूच कर किसी तरह से हाईवे को अवरूद्ध किया जाए। लेकिन यह सब आसान नहीं था। दोहपर बाद तक आपस में बेहद गुपचुप तरीके से यह सब विमर्श चलता रहा। संसाधनों का अभाव सामने आने से हम आगे नहीं बढ़ सके। तब एक डर यह भी सता रहा था कि कदाचित पुलिस या गुप्तचर विभाग को भनक लगी, तो विचार को अंजाम देने से पहले ही हमें गिरफ्तार किया जा सकता है। डर का एक कारण तब आंदोलन के बीच कुछ पुलिस के ‘सुरागदार’ थे।
खैर, सड़कों को अवरूद्ध करने की बात आगे नहीं बढ़ी तो हमने; जिसके पास पहाड़ के जो भी फोन नंबर थे, एसटीडी के माध्यम से उन्हें फोन लगाना शुरू किया। एक आद जगह फोन भी हुआ, लेकिन कनेक्टिविटी अच्छी नहीं होने के चलते अधिकांश जगह पूर्व सूचना नहीं दे सके। परिणाम अगले दिन से श्रीनगर, पौड़ी और कर्णप्रयाग जैसे पहाड़ी नगरों ने अपने इतिहास में पहली बार कर्फ्यू देखा।
• धनेश कोठारी
(नोट- आपके पास भी उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दिनों की कोई याद हो, तो हमें इस मेल shikharhimalay@gmail.com पर भेजें। हम उन्हें क्रमशः प्रकाशित करेंगे। उनसे जुड़ा कोई फोटोग्राफ्स भी उपलब्ध हो तो और अच्छा होगा।)