
लत्यों-लत्योंल् लत्याणी छै किलै
आँखोंल् मुछ्यळा चुटाणी छै किलै
दे छयो त्वैथई समळौण्या रुमाल
वैथै च्याँ गुज्यर चुटाणी छै किलै
प्यार का बुज्यों मा थमळी नि पखड़
प्यार का बुज्या उळ्याणी छै किलै
तेरी यादों कि खिचड़ी छै लुणकट
वैमा भी लूण रळाणी छै किलै
त्यारा नाम का छन उपड़्याँ फुपरा
यूँ फुपरौं फर मर्च लगाणी छै किलै
चप्प-चिबटु तेरी माया कि खंडेली फरैं
मिथै तु कुमर सि छडाणी छै किलै
प्यार कु पिंपुरु बणी तेरी खुचिलम् स्येग्यों
मिथैई कर्च-कर्च बुखाणी छै किलै
अद्दा राति मा जिकुडु बुजेणू छ ’जुयाळ’
अद्दा राति मा लाठु खुज्याणी छै किलै
(कवि हरीश जुयाल ‘कुटज’ गढ़वाली भाषा के सशक्त व्यंग्यकार हैं।)