
देखता रहा हूं क्षितिज पर उसका संघर्ष
और सुनता रहा हूं उसकी आवाज
दो दशक बाद इंच भर भी डिगा
नहीं है उसके उसूलों का ताज
उसने नेतृत्व में समेटी अलकनंदा सी गति
और हिमालय की ढृढ़ता और धार
पाश और बल्ली की कविता से सनी
सैकड़ो क्रांति समेटे है उसकी धाद
पत्थर पर उगे पीपल सा जीवट
दरकते पहाड़ो को समेटता सा कभी
उसकी भीची मुट्ठी और विचारों की तपिश
शोषित और गरीब को कराती है
अनवरत
समर्पण का गहरा आभास
उसके छने और ढीले कुर्ते को
मैं पाता हूं मेरी टंगी वर्दी की तरह
पसीना सोखे और मुखर
असाधारण है उसका सम्मोहन
रोटी मांग रहे उसके शब्द और
सत्ता को जगाने का उसका अंदाज़
मैं नही समझ पाता वाम और दक्षिण पंथ
केवल देख सुन पाता हूं
मानवीय संवेदना से भरा उसका हृदय
और संघर्षो की उसकी हर रात
पाने और खोने की परवाह से इतर
वह खड़ा है एक बार फिर से
चौराहे पर
उसकी क्रांति में शामिल रहिए जरूरी नहीं है
सिर्फ एक बार
उसकी आवाज में मिलाइए अपनी आवाज…