
उत्तराखंड कांग्रेस के “शीर्ष पुरुष“ हरीश रावत यानी अपने हरदा ने पिछले एक सप्ताह से अपने एक बयान से हलचल मचा रखी है। हर कोई उनके बयान के अलग-अलग निहितार्थ निकाल रहा है। हरदा ने ऐसे मौके पर शांत से तालाब में पत्थर फेंक कर लहरें पैदा की हैं, जब कांग्रेस में ‘संगठन सृजन’ की कवायद चल रही है। 
वैसे कोई भी दावे के साथ नहीं कह सकता कि संगठन सृजन के इस पर्व में किसका राजतिलक होगा और किसे हाशिए पर जाना होगा, क्योंकि कांग्रेस में सभी फैसले यहां तक कि जिले का अध्यक्ष भी दिल्ली से तय होता है। इसी के मद्देनजर हरदा का बयान सुर्खियों में है। हरदा ने अपनी राय दी थी कि जिला कांग्रेस कमेटियों में अधिक संख्या में ब्राह्मण चेहरों को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। 
हरदा यहीं नहीं रुके, सोशल मीडिया पर भी उन्होंने लिख डाला कि उन्होंने छोटी उम्र से ही कांग्रेस का इतिहास पढ़ा है और समझा है। देश की आजादी और देश निर्माण की लड़ाई में भी महात्मा गांधी व कांग्रेस ने सभी जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषी लोगों को जोड़ा। मगर यह ऐतिहासिक तथ्य है कि अपनी शैक्षिक बौद्धिक पृष्ठभूमि के कारण इन दोनों महाअभियानों में ब्राह्मण वर्ग से आने वाले लोग आगे रहे हैं और कांग्रेस के साथ उनका गहरा जुड़ाव रहा है। 
राजनीति में सक्रिय एक वर्ग ने इसे हरदा का प्रायश्चित करार दिया तो दूसरे वर्ग ने इसे 2027 की रणनीति। हरदा 1980 के दशक से पहले से कांग्रेस की राजनीति के एक स्तंभ हैं। उनके बराबर का अनुभव वाला शायद ही कोई दूसरा नेता कांग्रेस में इस समय सक्रिय राजनीति में हो। 
यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि उत्तराखंड की नारायण दत्त तिवारी सरकार रही हो या 2012 की विजय बहुगुणा सरकार। दोनों की चूलें हिलाने में हरदा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इसलिए माना जा रहा है कि हरदा संगठन की जिला इकाइयों का नेतृत्व ब्राह्मण समाज के युवाओं को दिए जाने की पैरवी कर रही हैं। इतने तक ही बात हो, हरदा के बयान को फिर समझने की भूल ही माना जाएगा। 
आपको याद होगा पिछले दिनों देहरादून जिला पंचायत सदस्यों के अभिनंदन कार्यक्रम में हरदा ने नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य की मौजूदगी में कुछ ऐसा ही प्रीतम सिंह के संदर्भ में भी कहा था। आशय यह था कि प्रीतम कांग्रेस के ध्वजवाहक बनें। इस बात की हामी उन्होंने आर्य से भी भरवाई थी। हालांकि यह एक अलग मामला है। राजनीतिक क्षेत्रों में कहा जा रहा है कि कांग्रेस संगठन में ब्राह्मण समुदाय की पैरवी कर हरदा 2027 का मार्ग निष्कंटक करना चाहते हैं। 
मार्ग की बाधाएं पहले ही दूर करने का दूसरा नाम ही राजनीति है। यह अलग बात है कि अतीत में इस तरह की कोशिशें नहीं हो पाई थी। तो यह मान लेने में हर्ज भी नहीं है कि प्रायश्चित के तौर पर ब्राह्मण समाज की पैरवी पुरानी चूकों की भरपाई करेगी। वैसे राजनीति में जो कुछ प्रकट रूप से कहा जाता है, वह अक्षरशः सत्य कभी नहीं होता लेकिन दिल बहलाने के लिए ग़ालिब ख्याल बुरा नहीं है। 
पंचतंत्र में व्याघ्र की एक कथा कुछ इसी तरह की सीख देती प्रतीत होती है जब वृद्ध व्याघ्र अपनी आयु का हवाला देते हुए शिकार न कर पाने में दीनता व्यक्त कर अपना ध्येय साध लेने में सफल रहता है तो यह मान लेने में उदारता ही होनी चाहिए कि प्रायश्चित स्वरूप पैरवी तो हो रही है। 
इसके लिए तो पूरा समाज ऋणी होना चाहिए। कम से कम इतना ध्यान तो रखा, वरना राजनीति का आज जो मिजाज है, उसमें अपना, अपने बेटे बेटियों और नातेदारों का ही लोग ध्यान रखते हैं। कम से कम कोई तो है जो पूरे समाज की पैरवी कर रहा है। इसमें भी अगर लोग राजनीति ढूंढ रहे हैं तो उसे “अल्पबुद्धि“ ही कहा जाएगा। प्रायश्चित न भी मानें तो उदारता तो कहना ही चाहिए।
 
 

 
 
						


