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Awareness: ओमिक्रोन और प्राकृतिक हर्ड इम्युनिटी

• शिवेंद्र ध्यानी

कोरोना (Corona) वायरस ने दुनिया की आर्थिक और सामाजिक व्यवहार को अभूतपूर्वक तरीके से प्रभावित किया है। विश्वयुद्धों के अलावा पिछले सौ वर्षों में ऐसा कोई अन्य कारक सामने नहीं आया था। हालांकि बीसवीं सदी के दूसरे दशक के उतरार्द्ध में फैली प्लेग महामारी के पश्चात यह पहला मौका है जब सम्पूर्ण विश्व इस तरह आहत और हताश हो चुका है। लेकिन मनुष्य जाति ने अपनी बुद्धि, जिजीविषा और विज्ञान के बूते हमेशा से ही हताशा पर विजय पाई है।

वायरस से लड़ने के लिए अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं; अनिश्चित नैदानिक एवं इलाज प्रक्रिया; सरकारों के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये और ध्वस्त प्रशासनिक व्यवस्थाओं ने आपके- हमारे परिजनों को भी हमसे छीन लिया। पिछले लगभग दो साल से सम्पूर्ण विश्व इसके प्रसार को रोकने के लिए लॉकडाउन, कर्फ्यू, सोशल डिस्टेंसिंग, मॉस्क, सैनीटाइज़ेशन, टीकाकरण जैसी व्यवस्थाओं का सहारा लिया है। भारत के परिपेक्ष्य लॉकडाउन के प्रथम ट्रायल ‘जनता कर्फ्यू’ के दिन अधिकतर लोगों ने तो किसी फेस्टिव मूड साथ ताली-थाली बजाकर अपना समर्थन प्रदान कर दिया, लेकिन धीरे-धीरे जब इसकी अवधि बढाई गई तो समाज में संशय भी बढ़ गया।

वायरस के ‘Omicron’ वैरिएंट की आमद के साथ आज लोग आपस में चर्चा करते हुए एक-दूसरे से पुनः पूछ रहे हैं की ‘Lockdown कब तक लगेगा?’ सरकारें भी ‘Night curfew’ जैसी व्यवस्थाएं पुनः लागू कर अपनी भावी मंशा जता चुकी है। लेकिन पिछले दो साल की जद्दोजहद में हम संभवतः एक पहलू को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं- Mother Nature। जी हाँ। प्रकृति ही हम सभी की जननी है। उसे भी अपने तरीके से हमारी फ़िक्र है, तो यदि ओमिक्रोन वायरस से जुड़े कुछ पहलुओं को वरीयता दी जाए तो शायद प्राकृतिक झुंड प्रतिरक्षा (Natural Herd Immunity) प्राप्त करने का मनुष्य को सुनहरा मौका मिला है।

चौंक गए..! कैसे…?
झुंड प्रतिरक्षा या सामाजिक प्रतिरक्षा, संक्रामक रोगों से अप्रत्यक्ष संरक्षण का एक रूप है तो तब प्राप्त होता है जब आबादी का एक बड़ा प्रतिशत किसी संक्रमण के प्रति प्रतिरोधी बन जाता है फिर चाहे वह पिछले संक्रमण या टीकाकरण के माध्यम से हुआ हो। इस प्रकार यह उन व्यक्तियों के लिए सुरक्षा का एक उपाय है जो प्रतिरक्षित नहीं हैं। एक ऐसी आबादी जिसमें व्यक्तियों के एक बड़े हिस्से में प्रतिरक्षा होती है उनसे संक्रमण की शृंखला बाधित होने की अधिक संभावना होती है। यह आबादी या तो बीमारी के प्रसार को रोकती है या धीमा कर देती है। एक समुदाय में प्रतिरक्षित व्यक्तियों का अनुपात जितना अधिक होता है उतनी ही कम संभावना होती है कि गैर-प्रतिरक्षित व्यक्ति एक संक्रामक व्यक्ति के संपर्क में आएगा और गैर-प्रतिरक्षित व्यक्तियों को संक्रमण से बचाने में मदद करेगा।

झुंड प्रतिरक्षा (Herd Immunity) के महत्व को सबसे पहले 1930 के दशक में स्वाभाविक रूप से होने वाली घटना के रूप में पहचाना गया था। जब यह देखा गया था कि एक महत्वपूर्ण संख्या में बच्चों को खसरे से प्रतिरक्षित हो जाने के बाद, अतिसंवेदनशील बच्चों सहित नए संक्रमणों की संख्या अस्थायी रूप से कम हो गई। इसके आधार पर झुंड प्रतिरक्षा (Herd Immunity) को तत्कालीन जनसंख्या के उस प्रतिशत के तौर पर आंका जाता है जो प्रतिरक्षित हो चुका है। ऐसी स्थिति में उस विषाणु के संक्रमण और प्रसार की सम्भावना नगण्य हो जाती है। शने-शने महामारी ख़त्म हो जाती है और एक सामान्य बिमारी की श्रेणी में आ जाती है।

शोध बताते हैं की झुंड प्रतिरक्षा (Herd Immunity) को प्राप्त करने के लिए जनसंख्या- समुदाय की दो-तिहाई आबादी का संक्रमित होना आवश्यक है। हालांकि लॉकडाउन/सामजिक दूरी बनाकर संक्रमण और मृत्यु दर को धीमे किया जा सकता है लेकिन उससे झुंड प्रतिरक्षा को प्राप्त करने में भी समय लगता है. ऐसे समय में जब इसकी वैश्विक आबादी के टीकाकरण की गति काफी कम और विभिन्न भौगोलिक, आर्थिक क्षेत्रों में असमान है तो वायरस को म्यूटेशन का पर्याप्त मौका मिल रहा है जिससे वह और घातक और संक्रामक होता जा रहा है। साथ ही टीके से प्रतिरक्षित आबादी के समक्ष भी नए संकट खड़े कर सकता है।

एक ओर जहां विकसित देशों ने अपनी संपूर्ण आबादी का टीकाकरण करने के उपरांत उन्हें बूस्टर डोज़ भी लगानी शुरू कर दी है वही आर्थिक रूप से पिछड़े अफ्रीकी देशों के नागरिकों को अभी तक प्रथम डोज़ भी मुहैय्या नहीं हो पाई है। ऐसे में कोरोना वायरस ने म्यूटेशन का मौका पाकर ओमिक्रोन वैरिएंट पैदा कर दिया है।

हालांकि यह वायरस का नया प्रतिरूप है इसलिए इसके व्यवहार के बारे में अनिश्चितता बरक़रार है। लेकिन ध्यान दिया जाए तो इससे संक्रमित मरीजों को अस्पताल में दाखिले की आवश्यकता नहीं पड़ रही है। न ही ऑक्सीजन देने की, न रेमडेसवियर, न प्लाज़्मा थेरेपी की, न इंटयूबेट करने की, न वेंटिलेटर की और सबसे बड़ी बात- मौतों की संख्या लगभग नगण्य..! आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और कम्प्यूटर गणना बताती है कि यदि प्रतिबंध न लगाएं जाएं तो अगले लगभग तीन महीने में यह प्रतिरूप संपूर्ण वैश्विक आबादी को संक्रमित कर सकता है..!

यदि संक्रामक दर और उपरोक्त पहलुओं को मद्देनजर रखते हुए देखा जाए है तो प्रकृति को छूट प्रदान की जा सकती है कि वही मनुष्य जाति को इसके माध्यम से झुंड प्रतिरक्षा प्रदान कर उसका कल्याण करे।


(शिवेंद्र ध्यानी विज्ञान लेखक हैं। शिक्षक हैं और शिक्षा में जन जागरूकता व स्वास्थ्य को लेकर निरंतर सजगता के साथ लेखन करते हैं।)

 

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