साहित्यहिन्दी

आज भी (हिन्दी कविता)

• धनेश कोठारी

आज भी
फिर फूल चढ़ा आए होंगे तुम
आदत जो बन गई है तुम्हारी

इन्हीं फूलों से शायद
लक्ष्मण रेखा भी खींच आते हो खुद के लिए
कि इससे आगे ना जाना है, ना सोचना

सही भी है
वे तो मर गए, मगर तुम्हें तो जीना है
फिर क्या फर्क पड़ता है
कि जीने के लिए जिंदा रहा जाए या नहीं

वैसे भी तुम्हें जलसे बहुत पसंद हैं
यही जलसे तुम्हें सेल्फी देते हैं,
खुशी देते हैं, पहचान देते हैं
और.. तुम छप जाते हो अगले दिन के अखबार में
छोटी या बड़ी सी हेडलाइन के साथ

अगला दिन
फिर इंतजार कर रहा होता है तुम्हारा
एक नए इवेंट के लिए

फिर तुम्हें अतिथि बनना है
भीड़ बनना है
अमर रहे के नारे लगाने हैं
हंसते हुए जिंदाबाद- जिंदाबाद कहना है

जिंदा- मुर्दों के लिए क्या इतना करना कम है??

(यह कविता 2 सितंबर 2019 के दिन लिखी गई थी। )

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