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उत्तराखंड कांग्रेसः आगाज ऐसा है तो अंजाम क्या होगा?

• दिनेश शास्त्री

Uttarakhand Congress: कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और वायनाड के सांसद राहुल गांधी इनदिनों दक्षिण भारत में भारत जोड़ो यात्रा पर हैं। वे एक बार फिर कांग्रेस को खड़ा करना चाहते हैं और अभी तक उनकी यात्रा व्यवस्थित ढंग से चल रही है। दूसरी ओर यहां उत्तर में भारत के भाल कहलाने वाले हिमालयी प्रदेश उत्तराखंड में कांग्रेस बिखरती दिख रही है। प्रदेश कांग्रेस कमेटी यानी पीसीसी में जो सदस्य बनाए गए हैं, उस सूची के जाहिर होते ही हंगामा खड़ा हो गया।

उत्तराखंड के पूर्वी छोर से विधायक मयूख महर ने पीसीसी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया तो पश्चिमी छोर पर चकराता से कांग्रेस विधायक और पूर्व नेता प्रतिपक्ष साथ ही पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे प्रीतम सिंह के बेटे अभिषेक सिंह ने पीसीसी छोड़ दी। बेशक अभिषेक सिंह का राजनीतिक रूप से कोई कद और पद नहीं है लेकिन विरोध का स्वर मुखर होना ही पीसीसी सदस्यों के चयन पर सवाल खड़े तो कर ही गया है। इन दोनों के अलावा एक अन्य अल्पज्ञात कार्यकर्ता ने भी यही रुख अपनाया है। बड़ा सवाल यह है कि जब पीसीसी के चयन के कारण इस कदर हंगामा बरपा है तो जब प्रदेश कार्यकारिणी की घोषणा होगी, तब क्या होगा? उसके अंजाम की कल्पना ही कोंग्रेसजनों को झकझोर सकती है।

बीते विधानसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद करन माहरा की प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर ताजपोशी हुई थी लेकिन उनके लिए पार्टी को पटरी पर लाना ’अग्निपथ’ ही सिद्ध हुआ है। या कहें कि सीधे तौर पर उनके लिए पार्टी चलाना “आग का दरिया है और तैर के जाना है“ की कहावत को चरितार्थ करने वाला सिद्ध हो रहा है।

संयोग देखिए कि करण वैसे सौभाग्यशाली अध्यक्ष भी नहीं बन पाए जिस तरह हरीश रावत और यशपाल आर्य पार्टी को मुकाबले में ले आए थे। ताजा तो बात है जब मई में उनकी पहली परीक्षा चंपावत उपचुनाव में हुई तो वहां बेहद निराशाजनक प्रदर्शन रहा। पार्टी वहां उतने वोट भी नहीं बटोर सकी जितने 14 फरवरी को हुए मतदान में पार्टी प्रत्याशी को मिले थे। निसंदेह चंपावत में कांग्रेस की पराजय तय थी, लेकिन यह मान कर हाथ पैर न मारना तो राजनीति नहीं कही जा सकती है। जबकि करण माहरा जितने ऊर्जावान, युवा और कर्मठ हैं, वे अपनी क्षमता के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाए हैं। लेकिन अब जो विरोध के स्वर उभरे हैं, वह उनकी आगे की राह को सुगम तो कतई नहीं बनाते।

माहरा अपने कार्यकर्ताओं को दिलासा दे रहे हैं कि पार्टी को एकजुट रखने के लिए सबको कहीं न कहीं एडजस्ट जरूर किया जाएगा। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि आखिर पीसीसी में जगह पाने के इच्छुक लोग क्या जिला और ब्लॉक कांग्रेस कमेटी में एडजस्ट किए जाने के आश्वासन पर संतुष्ट हो पाएंगे? पीसीसी की जो सूची सामने आई है उसको लेकर नाराजगी का सबब यह है कि जनाधार वाले नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया गया है जबकि जनाधार विहीन लोगों को जगह दे दी गई। तभी तो मयूख महर कहते हैं कि जो लोग कोई चुनाव नहीं जीत सकते उन्हें पीसीसी में लेकर उचित नहीं किया गया है जबकि वर्षों से पार्टी में योगदान दे रहे लोगों को छोड़ दिया गया।

वैसे देखा जाए तो पीसीसी का सदस्य बन जाना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है, पार्टी का यह सामान्य निकाय है। सैद्धांतिक रूप से यह बेशक बड़ी संस्था मानी जाए किंतु व्यावहारिक सत्य तो यही है कि यह मात्र एक शो केस है। यह सिर्फ कांग्रेस की समस्या नहीं है, कम्यूनिस्टो को छोड़ दें तो बाकी सभी पार्टियों में यही व्यवस्था चली आ रही है, किंतु पीसीसी में जगह पाने का एक लाभ तो यह है ही कि आगे की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। होना तो वही है जो हाईकमान चाहेगा और हाईकमान क्या चाहता है, यह बताने की जरूरत है क्या?

इस घटनाक्रम में एक पहलू यह है कि इस तरह की स्थिति उत्पन्न होने से कांग्रेस प्रदेश में मजबूत होगी या कमजोर? वस्तुस्थिति यह है कि पीसीसी को लेकर पार्टी में जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं, पार्टी संविधान का हवाला दिया जा रहा है कि कम से कम पांच साल की निरंतर सक्रिय सदस्यता के पैमाने का उल्लंघन, पुराने और समर्पित लोगों की अनदेखी तथा चाटुकारों को भरने जैसे तमाम आरोप हवा में हैं। कई लोग तो सौदे तक के आरोप तक लगा रहे हैं। गुटों में बंटी पार्टी को पर्दे के पीछे से कौन चला रहा है? किसके इशारे पर इस तरह के चयन किए जा रहे हैं, इस तरह के सवाल पहली बार नहीं उठ रहे हैं, किंतु देखा जाए तो इस तरह की नाराजगी पहली बार देखी जा रही है। आने वाले दिनों में ऐसे आरोप तीव्र हो जाएं तो आश्चर्य नहीं होगा।

अब कांग्रेस में नाराजगी का अगला एपिसोड प्रदेश कार्यकारिणी की घोषणा के बाद दिख सकता है और तब स्थिति ज्यादा विस्फोटक हो सकती है। प्रदेश अध्यक्ष के लिए यह बड़ी अग्नि परीक्षा हो सकती है। यह हाल तब है जबकि पार्टी सत्ता में नहीं है और हरिद्वार जैसे जिले में पंचायत चुनाव हो रहे हैं। सवाल पूछा जा सकता है कि क्या नाराजगी के मुखर स्वरों का पार्टी की संभावनाओं पर असर नहीं पड़ेगा?

निष्कर्ष यह कि भारत जोड़ो यात्रा के मध्य में उत्तराखंड में कांग्रेस कमजोर हो रही है, उसे इस समय संजीवनी की जरूरत थी किंतु स्थिति विपरीत दिख रही है। आप भी तेल देखिए और तेल की धार देखिए, आने वाले दिनों में बहुत कुछ नया देखने को मिल सकता है और यह नया घटनाक्रम अगले महीने के उत्तरार्द्ध में ज्यादा संभावित है, जब पार्टी को राष्ट्रीय अध्यक्ष मिलेगा। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के सामने तात्कालिक जरूरत डैमेज कंट्रोल की है। देखना यह है कि वे कितना सफल हो पाते हैं।


(लेखक दिनेश शास्त्री उत्तराखंड के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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