दुर्गम यात्राओं का रोमांच ‘चले साथ पहाड़’

• देवेंद्र मेवाड़ी
…मैंने पांडुलिपि को पढ़ना शुरू किया और पढ़ते-पढ़ते डॉ. अरुण कुकसाल तथा उनके साथियों की शब्द-शब्द यात्रा में शामिल हो गया। शामिल भी हो गया और उनकी इन दुर्गम यात्राओं का रोमांच भी मुझे घेरता गया। कुछ इस तरह कि ‘वे जो भी काम करते थे, उसी में डूब जाते थे। एक बार उन्होंने एक कुआं खोदा!’ तो, डूब कर शब्द-शब्द पढ़ते-पढ़ते जो लगा, इस शब्द यात्रा से लौट कर वह आपको बताना चाहता हूं।
पहली बात तो यह कि मैंने देखा, इन यात्राओं में साथियों के साथ-साथ जैसे पहाड़ भी साथ चलते रहे। अशोक कंडवाल जी ने अपनी कविता में उन पहाड़ों की बात बता ही दी हैः
देर रात
पहाड़ की एक चोटी ने
पुकारा दूसरी चोटी को
और दोनों
एक दूसरे की ओर
झुक कर लगीं बतियाने।
तो, घर से निकलने के बाद इनके साथ बस पहाड़ थे, पहाड़ के सीधे-सादे, मेहनती लोग थे, मुश्किलों में भी खिलती उनकी जिंदगी और ज़िंदादिली। और, ये यायावर साथी ऐसे कि जिनकी मानवीय नजर पहाड़ के नैसर्गिक सौंदर्य से कहीं अधिक वहां के जन-जीवन की दुश्वारियों पर टिकी थीं। इसीलिए पढ़ते-पढ़ते आप इन यात्रा वृत्तात्तों में मानवीय संवेदना की धड़कनें सुन सकते हैं। आइए, कुछ धड़कनें सुनें।
‘यात्रा दरियादिल दानपुर की’ में वहां के स्थानीय निवासी दिनेश दानू की बात भी सही है, ‘‘बात यह है कि आप लोग पहाड़ों को देखते हैं और हम इनमें रहते हैं। मूलभूत सुविधाओं से अनछुए ये पेड़-पहाड़ आपको दिखने में सुंदर लगेंगे ही। पर जब आपको इनमें ही रहना हो तब आपका यह विचार, विचार ही रह सकता है।’’
असल में पहाड़ की यात्राएं हैं तो कठिनाइयां भी कम नहीं। इन यात्राओं में कई जगह इस बात का अहसास होता है। मदमहेश्वर की यात्रा में लेखक के साथी भूपेंद्र बताते हैं-
‘‘11 किलोमीटर आ गए हैं। सुबह के छह बजे चलना शुरू किया था और इस समय बज रहे हैं बारह, घड़ी में भी और हमारे मुंह पर भी।’’
और, उसी बीच लेखक के शब्दों में-
‘‘मूसलाघार बारिश की बौछारें हमसे लड़ने के मूड़ में हैं। बादलों की भयंकर गड़गड़ाहट चुनौती दे रही है। कहीं कोई ओट भी नहीं है कि उसकी शरण ले लें। पैरों से आती फच्च-फच्च और सिर पर बारिश की दणमण ही साथ चल रही है।’’
कनू चट्टी से चलते समय उन्हें बोतल में पानी भरने का ख्याल नहीं आया। लिहाजा, चलते-चलते बारिश से बांज, बुरांश और कुछ पहचानी घास की भीगी पत्तियों को उनमें जमा पानी की बूदों के साथ चबाते हुए कुछ तो राहत मिल गयी!
रुद्रनाथ की लंबी यात्रा में चढ़ाई पार कर ‘‘एक धार पर पहुंचे और यह सोच कर कि चलो, कुछ देर बैठा जाए, बैठ ही रहा था कि पता नहीं, कैसे अपनी पीठ का पिट्ठू नीचे की ढलान पर लुढ़कते हुए अलविदा वाली मुद्रा में आ गया है। नीचे गहरी खाई और तीखा ढलान है लेकिन उसे लाने का जोखिम तो लेना ही है।’’
एक और जगह लेखक कहता है-
’‘यात्रा में चढ़ाई और मोड़ का अंत होते नहीं दिख रहा है। रास्ते के ऊपरी ओर की गुर्राहट और छिड़-बिड़ाहट जब बिल्कुल पास और तेज होने को हुई तो हम तीनों जड़वत हो गए हैं। रास्ते के पहाड़ वाले हिस्से से एक साथ चिपक ही गए समझो… निश्चित है कि कोई बड़ा जानवर उसी ओर है, जिस रास्ते हमें जाना है। बाघ की ही गुर्राहट है। छिड़-बिड़ाहट कई जगहों से आ रही है। यकीनन, बाघ एवं बाघिन जी सपरिवार गश्त पर हैं।’’
लेखक ने अपने साथियों के साथ केदारनाथ की भी कठिन यात्रा की। इस यात्रा में जहां कई दृश्यावलियों के नैसर्गिक सौंदर्य ने उनका मन मोहा, वहीं 16 जून 2013 भीषण आपदा के जख्मों की भी यादें ताजा हुईं। ये दिल हिला देने वाली यादें थीं। लोग सोनप्रयाग में मंदाकिनी के विकराल बहाव में अपनी परिसंपत्तियों को लाचार होकर बहते हुए देखते रहे। उस आपदा ने सोनप्रयाग की शक्ल ही बदल दी। एक ओर वहां मंदाकिनी और सोन नदी का बहुत ऊंचाई से विशाल पत्थरों पर गिरने का सम्मोहक दृश्य तथा उससे सृजित स्वर्णिम आभा और दूसरी ओर यादों में आपदा के गहरे जख्मों का दर्द। लेकिन, यात्रा के पड़ाव यादों के जख्मों को कुरेदते रहे।
रामबाड़ा कभी तीर्थयात्रियों का जीवंत पड़ाव था लेकिन 16 जून 2013 की भीषण आपदा ने उसका भी नामोनिशान मिटा दिया। पलक झपकते सैकड़ों लोग, पचासों दुकानें और भवन मंदाकिनी में समा गए। लेखक का कहना है आज वहां बस नदी का सूखा रौखड़ रह गया है।
यात्रा में वे पहाड़ के जनजीवन की कठिनाइयों से रू-ब-रू होते हैं। यह प्रसंग मन में विषाद भर देता है-
‘दुनिया सरनौल तक है, उसके बाद बडियाड़ है’ के तहत रवांईं क्षेत्र की यात्रा में बिशन लेखक को अपनी डायरी पढ़कर सुनाते हुए गाने लगता है, ‘‘ढाकर क उठी ढकराई… मतलब गांव से दूर बाजार जाकर जरूरत का सामान लाने जा रहे लोगों में से एक युवा बार-बार पीछे छूट रहा था। उसका मन गांव में था। पत्नी का प्रसव होने वाला था। गीत में आगे वह सुनाता है कि उस युवा के घर आने पर इलाज न मिलने के कारण उसकी पत्नी प्रसव पीड़ा में ही चल बसी।’’
रुद्रनाथ यात्रा में अपने दो खच्चरों के साथ आते हुए एक आदमी ने बताया कि उसके खच्चर पनार के जंगल में दो महीने बाद आज मिल पाए है। उस इलाके में खेती-बाड़ी के काम या दूध देने से छूटते ही जानवरों को जंगल में हांक दिया जाता है। जंगली जानवर उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाते और मान कर चलते है कि वे एक-दूसरे को भली-भांति जानते हैं।
दुर्गमता का तो कुछ कहना ही नहीं। पहाड़ का जीवन दुर्गमताओं से भरा हुआ है। मदमहेश्वर की यात्रा में जब यात्रा के साथी वणतोली पहुंचते हैं तो वहां से मधुगंगा और मोरखंडा नदी के संगम स्थल से पहाड़ की धार ही धार सीधे 10 किलोमीटर चढ़ाई पार करते हैं। इसी तरह रवांई पट्टी के बड़ियाड़ क्षेत्र की दुश्वारियों के बारे में कहा जाता है, दुनिया सरनौल तक है, उसके आगे बडियाड़ है। यानी वहां जाना दुर्गम है और वहां रहने की कल्पना से तो बदन सिहर उठता है। लेकिन, इन दुश्वारियों के बावजूद वहां के लोगों की जीवटता और जीवंतता देखते ही बनती है।
यात्रा में स्थानीय साथी बिशन कहता है, बरसात में बडियाड़ के आठों गांवों के रास्ते बंद हो जाते हैं। लोग अपनी जरूरत का सामान पहले ही जमा कर लेते हैं। यदि कोई बीमार हुआ या चोट-फटाक लगे तो ऊपर नीली छतरी वाला है ना! बडियाड़ गाड़ का पुल पार करने के बाद लेखक और उनके साथी जिस दुर्गम रास्ते से आगे बढ़ रहे हैं, उन्हें वहां का रास्ता जानने वाले लोग आवाज लगा-लगा कर बता रहे हैं कि इधर आओ, उधर जाओ, वहां मत जाओ। वहां बेत भर का भी रास्ता नहीं है और कहीं फिसल पड़े तो बडियाड़ में जल समाधि ही समझो।
इन दुश्वारियों में पहाड़ के विकास का क्या हाल है? यायावर लेखक ने इसका भी जायजा लिया है। बडियाड़ गांव के लिए वर्ष 2008 में जो 12 किलोमीटर सड़क स्वीकृत हुई थी, वह अब तक नहीं बन पाई है। गांव की महिलाएं कहती हैं कि जब उनके गांव के लिए सरकार 11 साल में 12 किलोमीटर सड़क नहीं बना पा रही है तो बाकी और बड़े काम कैसे करती होगी वो? यात्रा में सुनने को मिलता है कि हिमाचल के नेता अपनी गाड़ियों में फलों की पौध लेकर आया-जाया करते थे। उसका परिणाम आज वहां खुशहाली है। दूसरी ओर, उत्तराखंड के नेता अपनी गाड़ियों की बत्ती के चारों ओर बासी मालाओं को लपेट कर उत्तराखंड में जो कुछ है, उसकी भी इतिश्री करने में ही जुटे हैं।
लेखक जब अपनी यायावर टोली के साथ तुंगनाथ यात्रा के लिए निकलता है तो धारी देवी से आगे कालियासौड़ के चिर भूस्खलन को देखकर वे सभी चौंकते हैं। उन सभी ने बचपन से इस भूस्खलन को देखा है जिसकी रोकथाम न जाने कब होगी? थोड़ा आगे उन्हें पुलिस चौकी और शराब की दुकान दिखती है, जहां लम्बी कतारें लगी हैं। लेखक सोचता है- कोराना से उपजा लॉकडाउन आम आदमी के लिए आपदा है तो शराब कारोबारी और सरकार के लिए अवसर।
लेखक का कहना है कि केदारनाथ की कठिन तीर्थ यात्रा का भी स्वरूप बदलता जा रहा है। कभी केदारनाथ के दर्शनों की आस संजोए, दुश्वारियों का सामना करते तीर्थयात्री केदारनाथ तक आते थे। सावन के महीने की अपनी इस महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा में लेखक ने सोनप्रयाग से ही आगे बढ़ते कांवड़ियों की बेकाबू भीड़ को केदारनाथ की ओर जाते देखा।
बिना साइलेंसर की बाइकें, बिना हेलमेट और अंधाधुंध रफ्तार के साथ हवा में नशे की गंध छोड़ते हुड़दंगी युवकों की भीड़ साथ में धर्म ध्वज और राष्ट्रध्वज। हुड़दंग के उस माहौल में धृष्टराष्ट्र बना शासन-प्रशासन। यहां-वहां बिखरी प्लास्टिक की बोतलें और खाली पैकेट।
तीर्थ यात्रा का यह नया ही रूप देखा लेखक और उनके साथियों ने। उन्हें चिंता होती है कि धर्म के लिए युवाओं का यह बढ़ता हुआ ज्वार समाज को किस दिशा में ले जाएगा? नशेड़ी युवा कांवड़िए तीर्थयात्रा को बदरंग कर रहे थे।
खैर, हुड़दंगी युवाओं से नजर फेर कर वे अपनी पैदल यात्रा जारी रखते है और अचानक उन्हें मेरू और सुमेरू पर्वतों के बीच देवाधिदेव केदारनाथ के प्रथम दर्शन की दिव्य अनुभूति होती है। वे केदारनाथ के दर्शन करते हैं और फिर वहां से दो किलोमीटर ऊपर भैरव मंदिर की ओर चढ़ाई चढ़ते हैं। उस ओर जाते हुए उन्हें वह विशाल शिला दिखाई देती है जिसने क्रुद्ध मंदाकिनी की बाढ़ से केदारनाथ मंदिर को बचा लिया था। अब वह दिव्य शिला कहलाती है। वहीं एक दीवार पर उन्हें लिखा हुआ दिखाई देता है कि-
‘‘16 जून 2013 की आपदा में 197 लोगों की मृत्यु हुई, 236 लोग घायल हुए और 4029 लोग लापता हो गए। बाद में उन लापता लोगों को भी मृत मान लिया गया।’’ जून 2013 की आपदा के बाद के निर्माण कार्यों को देख कर लेखक कहता है वे अद्भुत हैं। लेकिन, मैं सोच रहा हूं कि मंदाकिनी की राह में फिर से खड़ी कर दी गई कंक्रीट की वह बस्ती खड़ी कर देना क्या उचित है। मैंने तो सुना है कि नदी अपना रास्ता कभी नहीं भूलती।
हां, लेखक को यात्रा के बदलते रंग-ढंग देख कर पीड़ा होती है और वे कहते हैं कि हमारे लिए इस तीर्थ यात्रा की पुरातन पवित्रता को बनाए रखना जरूरी है।
रुद्रनाथ की यात्रा पर जाते समय अगर जीप चालक पांडे जी यह कहते हैं तो क्या गलत कहते हैं कि-
‘‘वैसे भैजी, एक बात बताऊं, हम पहाड़ी लोग लुरु ही हैं। अपना गांव, खलिहान, मंदिर डुबा दिया एक कंपनी के फैदा के लिए। सुना, कुमाऊं में पंचेश्वर डैम बनाने जा रही है सरकार। हमको ले जाओ सहाब, वहां हम बताएंगे कि भाई लोगों सरकार और कंपनी की बातों में न फंसना। जैसी गत हमारी हुई है श्रीनगर डैम बनने से, वैसे ही तुम्हारी भी होगी।’’
यात्रा में सगर से पनार तक पूरे 12 किलोमीटर के ट्रैक में कोई सरकारी सुविधाएं और कर्मचारी नजर नहीं आए। कोई बीमार या दुर्घटना हो जाए तो भगवान ही मालिक है। वहां सरकार का पर्यटन-तीर्थाटन विकास तमाम विज्ञापनों में ही दिखता है। यात्रा के साथी देखते हैं कि पिंडर नदी के आर-पार बन रहा 60 मीटर का पक्का पुल पूरा होने से पहले ही धाराशायी हो गया है। निर्माणाधीन पुल को सीधा करने के प्रयास में जेसीबी के ढीले नट बोल्ट भड़भड़ा कर साथ छोड़ गए। उसे देख कर उन्हें वर्षों पहले देवप्रयाग और श्रीनगर में ऐसे ही नदी के ऊपर हवा में लटके निर्माणाधीन पुलों के अस्थि पंजर याद आते हैं।
इन यात्राओं में वे पहाड़ के गांवों का आंखों देखा हाल भी बयान करते हैं। श्रीनगर से रानीखेत की यात्रा में उन्हें प्राचीन कत्यूरी राजाओं का बसाया कैन्यूर गांव दिखाई देता है जो एक जीवंत और खुशहाल गांव है। वैसे उन्हें पौड़ी से करीब 90 किलोमीटर की यात्रा के दौरान न घरों के खंडहर दिखे और न बंजर खेत। पुरूष और स्त्रियां अपने-अपने काम धंधों में व्यस्त दिखाई दिए। ताश खेलते सयाने तक नहीं दिखे! उस पूरे इलाके की खुशहाली का कारण वहां के हरे-भरे जंगल हैं। इसी तरह रवांई क्षेत्र का दो तिहाई हिस्सा वनों और चरागाहों से ढका है। वहां खूब खेती और बागवानी होती है। लोग गेहूं, मार्शा, फाफर, आलू, जौ, झंगोरा, मंडुवा, उड़द, राजमा, भट, गहत, मटर, टमाटर, बथुवा, सेब और अखरोट उगाते हैं। पता लगता है, सन् 60 के दशक तक तो वहां बाहर से बिल्कुल भी अनाज नहीं आता था। इसी के विपरीत अपनी यात्राओं में उन्हें पहाड़ के कई बेहाल गांव भी दिखाई दिए। मदमहेश्वर जाते समय उन्हें पहाड़ पर रांसी गांव दिखाई देता है जहां सड़क तो आई लेकिन रोजगार के अवसर नहीं बढ़े। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वहां गांव से 28 परिवार पलायन करके देहरादून जा बसे थे। इसी तरह कई गांवों में उन्हें पलायन का असर दिखाई दिया।
पहाड़ की असली रीढ़ तो वहां की कर्मठ महिलाएं हैं। अपनी यात्रा में उन्हें कई ऐसी महिलाएं मिलीं। मदमहेश्वर जाते समय वे मैखम्बा चट्टी में रंगोली पंवार से मिले जो अकेली ही एक छोटा-सा रेस्ट हाउस चलाती हैं। दस वर्ष पहले उनके पति नहीं रहे, तब उन्होंने यह पूरी जिम्मेदारी संभाल ली। वे जानवरों के खर्क को भी संभालती हैं। बिटिया अंकिता ने आयुर्वेद में डिप्लोमा कर लिया है।
इसी तरह दानपुर की यात्रा में उनकी भेंट विनायक धार की बचुलदी से होती है। असल में वह धार अब बचुलदी धार के नाम से ही जानी जाती है। यह उनकी कर्मठता और उद्यम के कारण संभव हुआ है। उनकी दुकान शहर के किसी मॉल के टक्कर की है क्योंकि उसमें लगभग सभी कुछ मिलता है। उस सुनसान जगह पर जहां दिन में भी अकेला आदमी डर जाए, वहां बचुलदी पूरी हिम्मत के साथ डटी हुई अपना काम कर रही हैं। यह काम उन्होंने अपने पति के साथ शुरू किया था लेकिन पति के न रहने पर पूरी जिम्मेदारी खुद संभाल ली। अपने बच्चों को उन्होंने उच्च शिक्षा भी दिलाई है।
केदारनाथ की यात्रा में भी उन्हें गौरीकुंड बाजार में पति-पत्नी ललित और शांति की मेहनती जोड़ी भी दिखाई देती है। जो दिन रात मेहनत करके अपना ढाबानुमा होटल चला रहे हैं और बच्चों को खूब पढ़ाने के सपने भी देख रहे हैं। उनका बेटा और बेटी सोलन, हिमाचल प्रदेश में एक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहे हैं।
दानपुर की यात्रा में उन्हें सरनी गांव के उच्च प्राथमिक विद्यालय की अध्यापिका खष्टी दानू मिलती हैं जो मल्ला गांव पिंडर पार से रोज चार किलोमीटर की चढ़ाई तय करके विद्यालय आती हैं। पति घर में खेती और पशुपालन का काम देखते हैं। जीवट से भरी खष्टी कहती है, ‘‘कष्टों में भी मजे की है जिंदगी हमारी।’’ सुंदरढुंगा ग्लेशियर की यात्रा में उन्हें पानी के सोते के ऊपर खेत पर तीन महिलाएं दिखाई देती हैं, जिनकी पीठ पर घास का बोझा है। उनमें से एक महिला के पांव में कुछ देर पहले गहरा जख्म हो गया था। साथ की महिलाओं ने उसे सूती धोती का पल्लू फाड़ कर कस कर बांध दिया है। साथी यात्री तरुण अपना डाक्टरी बाक्स खोल कर लाल दवाई, टिंचर, रूई, पट्टी करने के बाद दर्द कम करने की गोली भी देता है। इसके तुरंत बाद वे महिलाएं एक तीखी चट्टान पर बनाए गए गहरे निशानों पर सावधानी से पांव रखते हुए उसे पार करती हैं। घायल महिला भी!
यात्रा में इन यायावर साथियों को गांव के बच्चे भी मिले। मदमहेश्वर की यात्रा में खंडारा चट्टी से आगे जाते हुए रास्ते के किनारे कोर्स की किताब के साथ बैठी बालिका रूचि पंवार दिखाई देती है जो 12 वीं में ऊखीमठ में पढ़ती है। सीजन में घर की मदद के लिए खंडारा आई है। ‘आगे क्या करोगी?’ पूछने पर कहती है, ‘मिलिट्री में जाने की तैयारी कर रही हूं। वहां नहीं हुआ तो टीचर बनूंगी।’ बडियाड़ को जाते समय डिंगाड़ी गांव के प्राइमरी और जूनियर हाईस्कूल में कक्षा 1 से 8 वीं तक के 40 बच्चे स्कूल के बरांडे में बैठ कर पढ़ाई करते हैं। कमरे इस हालत में नहीं हैं कि उनमें बच्चे बैठाए जा सकें!
रुद्रनाथ के रास्ते में रस्सी लिए दो बालिकाएं सृष्टि और आकांक्षा मिलती हैं। वे कक्षा 6 और 7 की छात्राएं हैं। स्कूल से लौटने के बाद घास काटने आई हैं। पढ़ाई के साथ घर-खेत के काम में हाथ बंटाना उनकी रोज की दिनचर्या है। पूछने पर कहती हैं, ‘हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा हमारे घर के काम?’ कार्तिक स्वामी यात्रा में मिलने वाला बच्चा दिल बहादुर को भी स्कूल नसीब नहीं है। लेखक का मत है कि ‘‘हम उस सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था का हिस्सा हैं जो दिल बहादुर को उसके स्कूल जाने के मूल अधिकार से वंचित किए हुए है।’’
इसी तरह सुंदरढुंगा ग्लेशियर की यात्रा में धाकुड़ी से आगे करीब ढाई सौ भेड़ों के झुंड को ढाल पर चराती हुई 10-11 साल की बच्ची मिलती है जिसके साथ उसका छह-सात साल का छोटा भाई भी है। लेखक ने पूछा, ‘क्या पढ़ती भी हो?’ वह खित्त से हंस दी और छू-छू-छू कहते हुए अपनी भेड़ों से कुछ कहने लगी। मां खेती-बाड़ी में और बापू पीडब्लूडी की लेबरी में। घास, लकड़ी, पानी, खाना, जानवरों और छोटे भाई की देखभाल सब उसके जिम्मे। भेड़ें आगे बढ़ने लगती हैं तो हल्की सीटी के साथ वह उन्हें रोक लेती है। वहां उसका मोटा झबरा कुत्ता चुपचाप लेटा हुआ भेड़ों की रखवाली कर रहा है। मतलब किसका स्कूल, कैसा स्कूल?
इन यात्राओं की एक खूबी यह भी है कि इनमें यायावर लेखक को पहाड़ के दुर्गम रास्तों पर चलते-चलाते चंद्रकुंवर बर्त्वाल, अशोक कंडवाल, कपिलेश भोज और अशोक पांडे की कविताएं याद आईं। यात्राओं में लेखक अपने पुराने मित्रों की याद के साथ चलायमान है। अल्मोड़ा यात्रा में उत्तराखंड के जननायक डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट के ‘स्मृति समारोह’ में मित्रों का मिलन मार्मिक है। साहित्यकार शैलेश मटियानी के अल्मोड़ा में बिताये संस्मरण को लेखक ने बखूबी याद किया है। लेखक ने श्रीनगर से रानीखेत जाते समय का एक मजेदार किस्सा भी बताया है। किस्सा पीठसैण के सज्जन सिंह ने सुनाया, कि-
वर्ष 2005 में वहां उस समय के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी आए हुए थे। तब एक बहुत बड़ा कार्यक्रम किया गया जिसमें बच्चों ने गीत, संगीत के साथ एक नाटक भी प्रस्तुत किया। नाटक करते समय एक बच्चे पर वीर चंद्रसिंह ‘गढ़वाली’ पहाड़ी देवता के रूप में अवतरित हो गए और वह धै लगा कर जोर-जोर से पूछने लगा, ‘क्यूं नहीं बनाई उत्तराखंड की राजधानी ‘गैरसैंण’, क्यों बरबाद कर रहे हो पहाड़ को शराब और खनन से, बच्चों का रोजगार कहां है? लोग बीमार हैं, तुम मजे कर रहे हो। शर्म नहीं आती? और भी बहुत कुछ बोला। मुख्यमंत्री क्या कहते? बस, नतमस्तक होकर कहते रहे ‘सब है जाल, सब है जाल!’
लेखक हमें एक ऐतिहासिक तथ्य से भी अवगत कराता है कि अप्रैल 1830 में कुमाऊं के प्रथम सहायक आयुक्त जार्ज विलियम ट्रेल और दानपुर के सूपी गांव के मलक सिंह टाकुली ने पिंडारी ग्लेशियर से मिलंग घाटी होकर ल्वां गांव तक जाने का निश्चय किया। लेकिन, लोग बताते हैं कि ट्रेल पिंडारी से आगे नहीं जा पाया जबकि मलक सिंह टाकुली ने अकेले पिंडारी से मुनस्यारी तक के दुर्गम दर्रे को पार कर लिया था। बाद में ट्रेल ने मलक सिंह को ‘बूढ़ा’ की उपाधि देकर उस क्षेत्र का माल गुजार बना दिया और दर्रे का नाम अपने नाम पर ‘ट्रेल पास’ रख दिया!
और अंत में तो बस यही कि यायावर साथी डॉ. अरुण कुकसाल का यह गजब उत्साह बना रहे और वे दुर्गम पहाड़ों में हिमालयी समाज के बीच जाते रहें, उनकी जिंदगी की जीवंत तस्वीरें हमें दिखाते रहें। शुभ यात्रा!