यह दीप अकेला स्नेह भरा,
है गर्व भरा मदमाता पर,
इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह वह विश्वास नहीं
जो अपनी लघुता में भी काँपा।
-हीरानंद सच्चिदानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
‘कारी तू कब्बी ना हारी’ उसी लघु एवं साधारण मानव की असाधारण कथा है जो विपरीत परिस्थितियों से लगातार संघर्ष करता हुआ, तथाकथित अपनों के दंश झेलता हुआ, जीवन-संग्राम की नैया में निरंतर हिचकोले खाता हुआ, अपनी सकारात्मक आस्था और मूल्यों के सहारे नाव को सफलतापूर्वक किनारे लगाने में सफल रहता है।
लेखक ललित मोहन रयाल ने इस रचना के माध्यम से अपने पिता की स्मृतियों को कुशल चितेरे की तरह उकेरकर व्यापक संदेश के साथ-साथ अपने स्वर्गीय पिता को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है। जैसा कि पुस्तक के प्राक्कथन में पदमश्री लीलाधर जगूड़ी जी ने लिखा है- ‘पिता पर लिखना दरअसल अपने पर लिखना हो जाता है।’
इस रचना की विशिष्टता भी यही है कि लेखक ने निरपेक्ष भाव से अपनी अद्वितीय शैली में इस रचना को रचा है। लेखक की अन्य दो प्रकाशित पुस्तकों ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ एवं ‘अथश्री प्रयाग कथा’ में जहाँ भाषा-शैली व्यंग्य की प्रखर धार से प्रवाहित थी, वहीं इस पुस्तक में लेखक ने कथ्य-अनुसार भाषा-शैली का अनुसरण किया है। जैसे पेज नंबर 48 पर ‘कष्ट सहा रहे तो वक्त पर काम आता है। कठिनाइयाँ आत्मसात की हुई हों तो जीने की राह आसान हो जाती है।
इस रचना की विशिष्टता यह भी है कि इस रचना के माध्यम से परिवार में पिता नामक किरदार को भी समझा जा सकता है। यथा- ‘पिता बच्चों को हाथ पकड़कर चलना सिखाते हैं। संघर्ष एवं मुश्किल समय में लड़ना सिखाते हैं।
पेज नंबर 108- ‘पिता जीवन में ऐसी ढाल के समान होते हैं जो विपत्ति रूपी बाणों को आने से रोक देते हैं।’
रचना में सूक्तियों की भरमार रामचंद्र शुक्ल की याद दिलाती है। कुल मिलाकर, यह कथा एक साधारण मानव की अंतहीन असाधारण यात्रा की कथा है, जिससे प्रेरणा लेकर हम अपने जीवन-पथ में संतोषी-भाव के साथ अग्रसर हो सकते हैं।
लेखक ललित मोहन रयाल ने इस रचना में हिंदी के साथ-साथ गढ़वाली बोली का भी सम्यक् प्रयोग किया है और उनकी अनोखी शैली ने हिंदी साहित्य के जीवनी-साहित्य में एक नया आयाम जोड़ा है। बहुत-बहुत साधुवाद ललित जी को, अपने पिता की स्मृतियों को सँजोने के लिए एवं एक साधारण मानव की असाधारण कथा को पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करने के लिए।
– समरेंद्र कुमार सिंह, इलाहाबाद