साहित्यहिन्दी

पहाड़, नदियां और बादल (हिंदी कविता)

• लोकेश नवानी

पहाड़/ सह सकते हैं जब तक/ कुछ नहीं कहते
मगर वे ग़ैर ज़रूरी सिर पर चढ़े जाने या
छाती पर सवार होने के खिलाफ रहते हैं
जब हो जाता है असह्य-पीड़ा की हद तक
इतना गुस्सा होते हैं कि
किसी आत्महन्ता की तरह
खुद को नष्ट करते हुए दूसरे को नष्ट कर देते हैं।

नदियों को अच्छा नहीं लगता
कोई उनका रास्ता रोके/ वे याद रखती हैं अपना पथ
मौका मिलते ही
लौट आती हैं पुराने रास्ते पर
गुस्से से उफ़नती हुई
तब वे किसी पर दया नहीं करतीं
हो जाती हैं निर्मम
फिर कोई मरे या बरबाद हो!

जिन ऊंचाइयों पर रहते हैं बादल
वहां वे किसी के बेमतलब दख़ल को
पसन्द नहीं करते
अति होने पर फट पड़ते हैं
उंडेल देते हैं इतना पानी
कि जिन्हें पहाड़ से रिश्तों की समझ नहीं
तमीज़ नहीं नदियों के घरों में रहने की
बादलों के मोहल्ले में घूमने का सलीक़ा नहीं
उन्हें पानी-पानी कर देते हैं!

इस तरह गुस्सा होते हैं
पहाड़, नदियां और बादल!

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