
Shiksha Men Badlav Ki Chunautiyan: शिक्षक, चिंतक, कहानीकार एवं शैक्षिक दख़ल के संपादक दिनेश कर्नाटक कृत ‘शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ’ चर्चित किताब संवेदनशील शिक्षकों, अभिभावकों, शिक्षाविदों, मनोविश्लेषकों, पत्रकारों और शोधार्थियों के साथ शिक्षक प्रशिक्षुओं के लिए उपयोगी है। शिक्षा के आस-पास केन्द्रित कई मौजूओं पर लिखे गए उनके लेखों का यह संग्रह अलहदा है। यह इसलिए भी संग्रहणीय बन पड़ा है क्योंकि दिनेश कर्नाटक पिछले दो दशकों से स्कूली शिक्षा से निरंतर जुड़े हुए हैं। उन्होंने शिक्षा के सरोकारों को करीब से देखा तो हैं ही साथ ही खुद जिया है। बतौर शिक्षक राजकीय सेवा में आने से पहले वह बाज़ार, उत्पाद और मुनाफे की बेहतर समझ को जीते रहे हैं। यही कारण है कि उनकी तार्किक नज़र सिर्फ शिक्षक हितों पर नहीं पड़ती। बल्कि वह समुदाय, छात्र, अभिभावक, शिक्षा प्रशासन और नीतिकारों के मंतव्यों को भी बखूबी समझते हैं। समझते ही नहीं उन्हें रेखांकित करते हुए खूबियों-खामियों पर बात करते हैं।
किताब के मर्म को समझने के लिए यदि लेखों के शीर्षक देंखे तो शिक्षा के स्वरूप, विद्यार्थियों के साथ शिक्षक से अन्तर्संबंध, स्कूलों की स्थिति-परिस्थिति, जानने-समझने की चुनौती, अंग्रेजी माध्यम, शिक्षकों के छात्रों से सम्बन्ध, शिक्षा और उसका भविष्य, नई शिक्षा नीति से अपेक्षाएँ, तर्कसंगत और वैज्ञानिक सोच, सरकारी स्कूलों का निजीकरण क्यों, गाँधीवादी शिक्षा, ट्यूशन-कोचिंग का बाज़ार, पढ़ने-लिखने की संस्कृति,कक्षा शिक्षण की कमजोरियां, शिक्षा के परम्परावादी तरीकों से उपजा भय, भ्रान्तियाँ, पाठ्यपुस्तकें, पुस्तकालयी प्रयोग, शिक्षक और उसका पेशा, गृह कार्य, शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न और शिक्षा, स्कूल में भाषा शिक्षक की भूमिका, शिक्षा के नवाचार और नवाचारी शिक्षक, फेल-पास की नीति, शिक्षा और बाज़ार, शिक्षा और बच्चों के घर की भाषा के साथ-साथ शिक्षा पर प्रथम की रिपोर्ट, और शारीरिक श्रम तथा कहानियाँ हमारे मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करने में सक्षम हैं।
किताब में शिक्षा प्रश्नोत्तरी भी है। इस परिशिष्ट में शिक्षा यानी क्या? विद्यालय, शिक्षा में माध्यम भाषा का सवाल, संसाधनों का सवाल, कला, संगीत तथा खेल की शिक्षा, शिक्षा की स्वायत्ता का सवाल, प्राथमिक तथा पूर्व प्राथमिक शिक्षा, शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना, भय तथा परीक्षा, शिक्षा का बाजारीकरण ख़त्म हो, शिक्षा तथा शारीरिक श्रम, शिक्षा तथा व्यवसाय, शिक्षक-शिक्षिकाओं को अन्य कार्यों में न लगाया जाए, शिक्षा व्यवस्था के सम्मान का सवाल, शिक्षा तथा पुस्तकालय, शिक्षा और संस्कृति पर एक स्पष्ट, तार्किक और सार्वजनिक हित की सोच शामिल है। यह परिशिष्ट एक तरह से शैक्षिक दख़ल से जुड़े शिक्षकों की सोच को भी रेखांकित करता है। महेश बवाड़ी, महेश पुनेठा, राजीव जोशी, डॉ.दिनेश जोशी, विनोद बसेड़ा और विवेक पांडे ने विचारोमंथन के उपरांत इसे अंतिम रूप दिया है।
यह बताना उचित होगा कि पेशे से शिक्षक दिनेश कर्नाटक न सिर्फ शिक्षा की बेहतरी का ख़याल रखते हैं बल्कि उस पर निरन्तर कार्य करते रहते हैं। भारत के युवा कहानीकारों में वे शुमार हैं। वह तार्किक आलोचना में यकीन करते हैं और उस पर निरंतर कार्य करते हैं। उनके चार कहानी संग्रह भारतीय साहित्य में शामिल हैं। दक्षिण भारत में सोलह दिन यात्रा वृत्तांत भी खूब चर्चित हुआ है। हिन्दी कहानी के सौ साल तथ भूमंडलोत्तर कहानी विषयक पीएचडी लीक से हटकर कार्य के परिणामस्वरूप चर्चा में है। वह नैनीताल जनपद में एक राजकीय इंटर कॉलेज में अध्यापन कर रहे हैं।
किताब के कुछ अंश यहाँ देने का मंतव्य मात्र इतना है कि आप महसूस कर पाएं कि मौलिकता, सोच-विचार और दिशा के तौर पर यह किताब बेहद खास है। कुछ अंश-
बच्चों को आरंभिक कक्षाओं में फेल न करने का निर्णय शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य की ओर लौटने की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम था। यहाँ से हम एक बड़े बदलाव की इबारत लिख सकते थे। मगर ऐसा हो न सका । हमारी परीक्षा पद्धति की एक सबसे बड़ी खामी यह है कि यह बच्चे की याददाश्त की परीक्षा लेती है। उसके इतर अन्य पहलुओं पर इसका ध्यान नहीं जा पाता। जिसने किताब की बातों को रटकर उत्तर के रूप में लिख दिया वह योग्य तथा जो नहीं लिख पाया वह अयोग्य ! क्या याद करने की क्षमता किसी बच्चे का एकमात्र गुण होता है? प्रत्येक मनुष्य में कई तरह की दक्षताएँ होती हैं। छोटी उम्र में हम उन्हें पहचान नहीं सकते। हमारी शिक्षा की कमी यह है कि वह बच्चे की उन संभावनाओं को न तो पहचान पाती है और न ही उन्हें प्रोत्साहित कर पाती है। ऐसी स्थिति में हम किसी बच्चे को पाठ्यपुस्तकों के प्रश्नोत्तरों के आधार पर असफल होने का प्रमाण पत्र कैसे दे सकते हैं? यह प्रमाण पत्र कई बच्चों के लिए जीवनभर हीन भावना का कारण बन जाता है। जब शारीरिक रूप से कई तरह की बाधाओं से घिरा हुआ व्यक्ति अपनी बाधाओं पर विजय पाकर ऐसे-ऐसे कारनामें कर सकता है ।
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वैज्ञानिक भी अपने कार्य को महत्व देते हैं न कि बाहरी तामझाम को । वैज्ञानिक सोच विकसित करने के लिए सवाल बहुत जरूरी हैं। सवाल करने वाला ही नई खोज कर सकता है। पढ़ाई की सार्थकता भी तभी है जब वह हमारे मन में नए-नए प्रश्नों तथा जिज्ञासा को जन्म दे । ध्यान रहे, उत्तर जानना जरूरी है लेकिन उत्तर से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न हैं । प्रश्न करने वाला ही नेतृत्व दे सकता है। उत्तरों को रटने वाले सिर्फ अनुयायी हो सकते हैं। 2500 वर्ष पहले गौतम बुद्ध ने कहा था, ’किसी भी चीज पर इसलिए विश्वास मत करो क्योंकि वह तुम्हें बताई गई है या इसलिए क्योंकि वह पारंपरिक है। सम्यक निरीक्षण और विश्लेषण के पश्चात, सब के हित-लाभ वाली बात को स्वीकार करो !’
एक मानवीय एवं बेहतर देश तथा समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है कि हम जीवन के हर पक्ष-हर विषय में तर्कसंगत और वैज्ञानिक सोच को अपनाएँ। अपनी समस्यायों तथा अपनी जिज्ञासाओं के अधिकतम स्वीकार्य समाधान हम इसी तरह प्राप्त कर सकते हैं।
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प्रेमचंद के बाद हिंदी के बड़े लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क तथा यशपाल भी शारीरिक श्रम करने वाले मेहनकश लोगों के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। मगर शेखर जोशी एक ऐसे कहानीकार हैं, जिनके वहाँ शारीरिक श्रम के विभिन्न पक्षों से संबंधित बहुत सी कहानियाँ हैं । उनकी बेहद चर्चित कहानी ’दाज्यू’ शारीरिक श्रम करने वालों के प्रति सफेदपोश लोगों के नजरिए को ही सामने लाती है। चाय की दुकान में वेटर का काम करने वाले एक पहाड़ी लड़के मदन तथा वहाँ आने वाले ऑफिस के जगदीश बाबू में पहाड़ से होने के कारण जुड़ाव होता है। मगर जगदीश बाबू के ऑफिस के साथ वालों के आने से यह उनके प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है और वह लड़के को दुत्कार देते हैं। ’गलता लोहा’ शारीरिक श्रम, जाति व्यवस्था तथा संबंधों में प्रवेश कर चुकी अमानवीयता की कहानी है। साथ पढ़ने वाले दलित तथा ब्राह्मण लड़कों में से दलित को अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा परिस्थितियों के कारण जहाँ लुहार का पारंपरिक कार्य करना पड़ता है, वहीं ब्राह्मण लड़के से उम्मीद की जाती है कि एक दिन वह बड़े पद पर पहुँचेगा। मगर बदली परिस्थितियों के कारण वह भी आईटीआई करने के पश्चात फिटर बन जाता है और लोहे के कार्य में उसके बराबर दक्ष हो जाता है। यह दिखाता है कि बदलते समय में दक्षता महत्वपूर्ण है, जातिगत भेदभाव नहीं । शेखर जोशी की पुराना घर, बदबू, उस्ताद, मेंटल, आशीर्वचन आदि कहानियाँ भी शारीरिक श्रम के सवालों पर केन्द्रित हैं। विश्व साहित्य में गोगोल की गरमकोट, चेखोव की वांका तथा दुःख।
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जो बच्चे अपने परिवेश की भाषा में पढ़ने के बावजूद शिक्षा से जुड़ नहीं पा रहे हैं क्या वे एक अपरिचित भाषा में शिक्षा से जुड़ पाएंगे ? नीति आयोग सरकारी स्कूलों को पीपीपी मोड में देना चाहता है। वह चाहता है, निजी क्षेत्र सरकारी स्कूलों का दायित्व अपने ऊपर ले ले। इस प्रकार वह सरकार पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ को कम करना चाहता है। स्पष्ट है, इस प्रकार वह सरकार को धीरे-धीरे इस लोककल्याण के दायित्व से अलग कर देना चाहता है। नीति आयोग निजी क्षेत्र को प्रति बच्चे के आधार पर वित पोषित करना चाहता है। उसके अनुसार यह उन स्कूलों की समस्या का समाधान दे सकता है, जो खोखले हो गए हैं और उनमें काफी खर्च हो रहा है। नीति आयोग का इरादा निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण के तहत दी जाने वाली बाउचर प्रणाली जैसा ही है। फर्क यह है कि यहाँ वह बड़ी होशियारी से शिक्षकों तथा कार्मिकों के वेतन आदि के दायित्व से भी किनारा कर लेना चाहता है। इस प्रक्रिया में सरकार से सम्मानजनक वेतन पाकर ठीक-ठाक जीवन स्तर जी रही एक बहुत बड़ी आबादी को निजी स्कूलों की तरह औने-पौने वेतन में लाने की योजना है। यह सारे लक्षण उदार लोकतंत्र की ओर बढ़ने के नहीं बीमार पूँजीवाद को धारण कर देश और लोगों को गरीब बनाने वाले तथा शिक्षा को किसी हल्के-फुल्के काम में बदलने वाले हैं।
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कितनी अजीब बात है कि हम विज्ञान पढ़ते हैं। परीक्षाओं को भी खूब अच्छे नंबरों से पास कर लेते हैं, मगर बिल्ली का रास्ता काटना हमें परेशान कर देता है। हम किसी अनहोनी की आशंका से भयभीत हो जाते हैं। यह दिखाता है कि हमने विज्ञान तो पढ़ा मगर वह हमारे जीवन और व्यवहार में नहीं उतर सका । हमने शिक्षा सीखने-जानने के बजाए सर्टिफिकेट प्राप्त करने के लिए ली। अगर हमारा नजरिया तर्कसंगत और वैज्ञानिक होता तो हम बिल्ली के रास्ता काटने को अशुभ मानने की मान्यता को सीधे स्वीकार करने के बजाए उस पर विचार करते। हमारे दिमाग में कुछ सवाल उठते । हम सोचते, बिल्ली दूसरे कई घरेलू जीवों की तरह मनुष्य के साथ रहती है। अगर दूसरे जीवों के रास्ता काटने से हमारे जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता तो बिल्ली के रास्ता काटने से कैसे हमारे साथ कुछ गलत हो जाएगा? बिल्लियाँ अगर हमारे आस-पास होंगी तो रास्ता भी काटेंगी ?
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शिक्षक-शिक्षिकाओं की काबिलियत इसी में नहीं है कि वे अपनी पाठ्य-सामग्री बच्चों तक अच्छे से पहुँचा दें, बल्कि इसमें भी है कि वे पाठ्य सामग्री को परोसने के बीच के मानवीय पलों में बच्चों से किस तरह से पेश आते हैं। एक शिक्षक की पाठ्य सामग्री में अच्छी पकड़ हो सकती है, लेकिन उसका व्यवहार बच्चों के प्रति उत्साहजनक नहीं है तो उसकी योग्यता का अधिकतम लाभ बच्चों को नहीं मिल सकता। सिर्फ आजीविका कमाने के उद्देश्य से शिक्षण के पेशे में आने वाला व्यक्ति अपने को भी तथा बच्चों को भी धोखा देगा। इस पेशे में उसे ही आना चाहिए जिसे पढ़ने-लिखने तथा रचनात्मक कार्यों में आनंद आता हो, जिसे बच्चों से जुड़ना तथा संवाद करना अच्छा लगता हो । जो बाल मनोविज्ञान समझता हो तथा उसे और अच्छे से समझना चाहता हो। कई शिक्षक-शिक्षिकाएँ बच्चों की जिज्ञासा, उनके उत्साह, उनकी धमाचौकड़ी को स्वीकार नहीं कर पाते । चाहते हैं, वे शांत बने रहें। इसके लिए वे न सिर्फ उन्हें डाँटते और पीटते रहते हैं, बल्कि कुछ बच्चों को तो शैतान भी घोषित कर देते हैं। उनके प्रति उनका व्यवहार पूर्वाग्रह पूर्ण हो जाता है। ऐसे में विद्यार्थी तथा शिक्षकों के बीच तनाव उत्पन्न हो जाता है, जिसकी चरम परिणिति किसी दुःखद घटना के रूप में सामने आती है।
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जाहिर सी बात है, तमाम शिक्षाशास्त्रीय संस्तुतियों की मंशा यह है कि बच्चे को प्राथमिक शिक्षा उस भाषा में दी जाए जिसके साथ वह विद्यालय में आया है। अगर यह काम उस भाषा में किया जाएगा जो उसे नहीं आती है तो शिक्षा उसके लिए मुसीबत बन जाएगी। वह उसमें रुचि लेना छोड़ देगा। इस क्षेत्र में किए गए शोध बताते हैं कि 26 प्रतिशत बच्चे अपरिचित भाषा में शिक्षण होने के कारण स्कूल छोड़ देते हैं। ज्ञान अर्जित करने या भाषा को सीखने का क्रम हमेशा सरल से जटिल होता है। अंतर्राष्ट्रीय शोध बताते हैं कि यदि मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा दी जाए तो विद्यालयी उपलब्धि तथा दूसरी भाषाओं में निपुणता बेहतर होती है। बच्चों को स्कूल से पहले की भाषा में पढ़ाना खासतौर से निर्धन बच्चों के लिए वरदान माना जाता है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 माध्यम भाषा के सवाल को हल करने का सरल तथा सहज समाधान प्रस्तुत करती है। वह कहती है, स्कूल का सबसे पहला दायित्व बनता है, घर की भाषा से स्कूल की भाषा को जोड़ना। उसके बाद उसके साथ एक या उससे अधिक भाषा को जोड़ दिया जाए ताकि बच्चा पहली भाषा को बिना छोड़े अन्य भाषा में आसानी से पहुँच सके।
किताब ‘शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ’ का आवरण चित्र मनोज रांगड़ एवं विनोद उप्रेती का है। किताब का लेआउट धनेश कोठारी ने तैयार किया है। काव्यांश प्रकाशन की आमद उत्तराखण्ड में सुखद अहसास है। यह प्रकाशन शुरु से ही किताब की गुणवत्ता और चयन पर बेहद सावधानी बरत रहा है। विविधता के साथ-साथ प्रकाशक पाठकों के मन को पढ़ने में भी कामयाब रहा है। किताबों का मूल्य पहुँच के भीतर रखना सबसे बड़ी चुनौती है। इस लिहाज़ से भी काव्यांश प्रकाशन ने अपनी जगह तेजी से बनाई है। कवर पेज उम्दा है। काग़ज़ बेहतरीन है। सफेद इतना कि उसमें काला सुन्दर फोंट उभर रहा है। आँखों को तरो-ताज़ा रखने में सफल है। डिमाई आकार पाठकों के अनुकूल है।
किताबः शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ
लेखकः दिनेश कर्नाटक
लेखक से सम्पर्कः 9411793190
विधाः लेख
मूल्यः 200
पृष्ठ संख्याः 160
प्रकाशन वर्षः 2022
प्रकाशकः काव्यांश प्रकाशन
पताः वशिष्ठ सदन, 72 रेलवे रोड,ऋषिकेश,देहरादून 249201
फोनः 9412054115,7300554115
मेलः kavyanshprakashan@gmail.com
-पुस्तक अमेजॉन और फ्लिपकार्ड पर भी उपलब्ध है।
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प्रस्तुतिः मनोहर चमोली ‘मनु’.
सम्पर्कः 7579111144