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त्रियुगीनारायणः निसंतान दंपत्तियों की कामना पूर्ति का तीर्थस्थल

श्रद्धा, विश्वास और आस्था के इस धाम में 25 सितंबर से बामन द्वादशी मेला

• दिनेश शास्त्री

Triyuginarayan Temple : भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह स्थल त्रियुगीनारायण पौराणिक महत्व के साथ निसंतान दंपत्तियों की मनोकामना पूर्ण करने वाला तीर्थ है। इस तीर्थ में तीन युगों से जल रही अखंड धूनी इसके महत्व को न सिर्फ निरूपित करती है बल्कि लोगों की आस्था और विश्वास को भी पुष्ट करती है।

उत्तराखंड में कई देवस्थान निसंतान लोगों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए प्रसिद्ध हैं। चमोली में मंडल के निकट अनुसूया माता का मंदिर हो या श्रीनगर में वैकुंठ चतुर्दशी का पर्व या नंदा के तीर्थ। इन्हीं में एक त्रियुगीनारायण भी है जहां बरोही दंपती रात्रि जागरण कर बामन द्वादशी पर सुफल पाते हैं। लोक मान्यता है कि भगवान नारायण के पश्वा जिन दंपतियों को फल प्रदान करते हैं, उनके सुने आंगन में सालभर के भीतर किलकारी गूंजने लगती है।

क्या कहते हैं जानकार
दूरदर्शन से सेवानिवृत्त वीडियो अधिशासी और लोकसंस्कृति के विशिष्ट अध्येता डॉ. ओमप्रकाश जमलोकी मानते हैं कि त्रियुगीनारायण तीर्थ वैदिक, पौराणिक तथा लोकव्यवहार का समन्वय है। वे मानते हैं यह मूलतः वैदिक तीर्थ है जिसमें अग्नि को प्रमुखता दी गई है। वेदों में इंद्र के बाद अग्नि को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है। शिव पार्वती का विवाह चूंकि इसी स्थान पर हुआ, राजा हिमवंत और मैनावती का कोई पुत्र न होने के कारण भगवान नारायण ने पार्वती के भाई की भूमिका निभाई थी तो यह स्थान नारायण को समर्पित कर दिया गया।

डॉ.जमलोकी के अनुसार यहां तीसरी शताब्दी की एक प्रतिमा मिली है, उसके कालक्रम की पुष्टि पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने की है। डॉ.जमलोकी बताते हैं कि त्रियुगीनारायण का वर्तमान मंदिर तेरहवीं शताब्दी का है। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भिलंग के किसी राजा ने किया था। इस मंदिर के शिखर पर नाथ पंथ के प्रवर्तक आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। चूंकि नाथ पंथ को रुद्रावतार भी माना गया है और इसी क्रम में गुरु गोरखनाथ ने भी यहीं तपस्या की थी और उसके बाद यहां लोक देवताओं के मंदिर भी स्थापित हुए, इस कारण यह वैदिक, पौराणिक और लोक मान्यताओं का समुच्चय बन गया है। यही इस तीर्थ की विशेषता है जो इसे अन्य तीर्थों से कुछ अलग करती है।

कतिपय इतिहासकार मानते हैं कि नारायणकोटी की तरह यहां भी अनेक मंदिर समूह थे और यदा कदा उनके प्रमाण खेती किसानी के दौरान मिल भी जाते हैं। नारायणकोटी में भी अब गिनती के मंदिर ही दिखते हैं, उसी तरह यहां भी कुछ ही मंदिर दिखते हैं।

ग्रामीणों के पास हैं यहां के हकहकूक
त्रियुगीनारायण में वर्तमान में रह रहे लोग श्रीनगर के सामने बड़ियारगढ के हैं। हालांकि इसमें मतभेद हो सकते हैं किंतु माना जाता है कि श्रीनगर में गढ़वाल नरेश अजयपाल के काल अथवा उनके परवर्ती शासकों ने करीब चार सौ वर्ष पूर्व यहां रह रहे लोगों को धाम की व्यवस्था के निमित्त भेजा।

कमोबेश उसी कालखंड में रविग्राम के लोगों का महाराष्ट्र से यहां आगमन माना जाता है। उन्हें भी उसी दौरान नारायण की पूजा का दायित्व दिया गया। ये सभी व्यवस्थाएं अनवरत चल रही हैं। मंदिर के गर्भगृह की पूजा रविग्राम के जमलोकी लोग करते हैं। वही भगवान का भोग लगाते हैं और गर्भगृह के बाहर तीन युगों से जल रही धूनी में हवन करते हैं। बाकी समस्त व्यवस्थाएं त्रियुगीनारायण गांव के लोगों के पास हकहकूक के रूप में जारी हैं। तीर्थयात्रियों को दर्शन कराने का दायित्व स्थानीय लोगों के पास बरकरार है। वैसे यह मंदिर भी श्री बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के अधीन है लेकिन स्थानीय निवासियों के हक सुरक्षित रखे गए हैं।

मंदिर की संरचना पर एक नजर
अब एक नजर मंदिर की संरचना पर डालें। गंगा को हमारे धर्मग्रंथों में विष्णु पत्नी माना जाता है। यहां गर्भगृह में नारायण के चरण गंगा पखारती है। गर्भ गृह में एक छोटा सा जल कुंड इसका प्रमाण है और वहीं से निकला जल इस धाम के सप्त कुंडों में प्रवाहित होता है। गर्भगृह में नारायण के विग्रह के साथ ही शालिग्राम समूह है तो पास ही गणेश जी स्थापित हैं। किंतु मूल मंदिर भगवान विष्णु को ही समर्पित है।

22 सितंबर से पारंपरिक उत्सव की शुरूआत
इस वर्ष आगामी 22 सितंबर को श्री दुर्वाष्टमी पर्व पर इस पारंपरिक उत्सव तथा एक तरह से लोक द्वारा अभिहित पुत्रेष्ठी यज्ञ की शुरुआत हो जाएगी। त्रियुगीनारायण मंदिर के अधिकारी परशुराम गैरोला ने बताया कि यह वार्षिक उत्सव 25 सितंबर को जलझूलनी एकादशी के पर्व पर बृहदाकार लेगा। उस रात्रि दर्शन के साथ संतान कामना के निमित्त अनुष्ठान करने वाले दंपत्ति रात्रि जागरण करेंगे। उस रात्रि बरोही हाथों में दीपक लेकर साधना करते हैं।

वामन द्वादशी को वामन जयंती मेला 26 सितंबर को होगा। उस दिन पहले भैरवनाथ के पश्वा अवतरित होते हैं और उसके बाद नारायण के पश्वा बरोहियों को फल प्रदान कर उनके मनोरथ पूर्ण होने का आशीर्वाद देते हैं। कमोबेश इसी तरह की परम्परा माता अनुसूया देवी और श्रीनगर के बैकुंठ चतुर्दशी मेले में भी है। इसके अतिरिक्त प्रकारांतर से गढ़वाल के कुछ अन्य स्थानों पर भी इस तरह के उत्सव आयोजित होते हैं।

अंदरवाड़ी, देवशाल और रविग्राम में बीं माई का हर तीसरे साल होने वाला उत्सव इन्हीं लोक परंपराओं का अंग है। बामन द्वादशी के दिन समस्त ग्राम त्रियुगीनारायण एवं सम्पूर्ण क्षेत्र की जनता इस उत्सव की साक्षी बनती है। गैरोला ने पूर्व की भांति क्षेत्रीय जनता से इस मेले को संपन्न करने में भागीदारी निभाने की अपील की है। उन्होंने कहा कि वे समस्त सनातन धर्मावलंबियों का इस उत्सव में स्वागत करते हैं और प्रभु से सभी के लिए शुभ आशीर्वाद की कामना करते हैं। उन्होंने लोगों से आह्वान किया है कि वे भगवान नारायण का इस पर्व पर आशीर्वाद प्राप्त कर पुण्य के भागी बनें।

एक दशक से बढ़ा तीर्थाटकों का आवागमन
हाल के वर्षों खास कर पिछले एक दशक से यहां तीर्थयात्रियों का आना वर्षभर लगा रहता है। लोगों की बढ़ती आवाजाही के चलते अवस्थापना सुविधाएं भी तेजी से विकसित हुई हैं और यात्रा सुगम होने से लोग आध्यात्मिक सुख की अनुभूति करते हैं। आने वाले समय में यहां तीर्थाटन और अधिक बढ़ने की संभावना है और इसका लाभ स्थानीय निवासियों को होगा।

वहीं, आजकल इस धाम में विवाह समारोह आयोजन करना एक पुनीत कार्य माना जाने लगा है। यह अलग बात है कि इस तरह के आयोजनों के साथ कुछ अवांछित कृत्य भी हो रहे हैं, शांत वातावरण में डीजे की गूंज कई बार वन्य जीवों ही नहीं स्थानीय निवासियों के लिए भी अप्रिय महसूस होती है।



(लेखक दिनेश शास्त्री उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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