नैनीताल

Haldwani: नई वननीति जनता के हितों के खिलाफः जगमोहन रौतेला

हल्द्वानी। जनमैत्री संगठन नैनीताल की ओर से वन कानून और लोगों के वनाधिकार विषय पर फतेहपुर स्थित बावन डॉठ में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी में जलागम उप निदेशक सेवानिवृत्त यतीश पंत, सेवानिवृत वनाधिकारी मदन सिंह बिष्ट, लक्ष्मण सिंह मेवाड़ी, वरिष्ठ पत्रकार जगमोहन रौतेला, शिक्षक पूरन सिंह बिष्ट, प्रदीप कोठारी, सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष पंगरिया, राजेंद्र जोशी, कवि नरेंद्र बंगारी, सामाजिक कार्यकर्ता मोहन सिंह बिष्ट, गुरविंदर सिंह गिल जनता टीवी नेटवर्क और पत्रकार सोनू सिंह और कार्यक्रम आयोजक एवं जनमैत्री संगठन के संयोजक बची सिंह बिष्ट ने भागीदारी की।

बैठक के दौरान संगठन के संयोजक बची सिंह बिष्ट ने कहा कि उत्तराखंड में बसासत और जंगलों का गहरा अंतर्संबंध रहा है। पिछली पीढ़ियों ने लंबे संघर्ष के बाद जो वनाधिकार हासिल किए हैं, अब उनके ऊपर सरकार की नई वन नीति 2023 पूरी तरह खतरा बन रही है। मध्यप्रदेश वन विकास मॉडल को लेकर उन्होंने कहा कि यद्यपि सरकार नए वन कानूनों को लेकर इसे जनता के बीच सफल उदाहरण की तरह पेश कर रही है, लेकिन इस वन कानून में वन की परम्परागत और पिछली परिभाषा को ही बदल दिया गया है। इस वन कानून में पेसा एक्ट और वनाधिकार अधिनियम 2006 के प्रावधानों का कहीं जिक्र ही नहीं है। इसके अलावा वनों को निजी व्यापारिक समूहों को देने, इको टूरिज्म के नाम पर उनमें निजी संस्थानों, कार्पोरेट घरानों को होटल, रिसॉर्ट आदि बनाने की छूट देना बहुत चिंताजनक है। इस नए कानून में यह व्यवस्था है कि यदि कोई नई सरकार चाहे तो उसमें बदलाव भी नहीं कर सकती है।

पूर्व वनाधिकारी मदन बिष्ट ने कहा कि वन क्षेत्र में हरियाली खासकर उत्तराखंड में बढ़ी है, लेकिन वन क्षेत्र की समृद्धि घट चुकी है और ऐसे वन कानून लागू किए जा रहे जो स्थानीय चौड़ी पत्ती के वनों के स्थान पर आयातित प्रजातियों को बढ़ावा देते हैं। जो स्थानीय आर्थिकी और वन्यजीवों के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं।

पूर्व वनाधिकारी लक्ष्मण सिंह मेवाड़ी ने कहा कि वन कानूनों को ईमानदारी से लागू करने में कई दिक्कतें हैं। लगातार वन क्षेत्रों में खनन और अतिक्रमण से वनों का विनाश हो रहा है और वास्तविकता को यदि लोगों के बीच उजागर करने का प्रयास किया जाता है तो सच के साथ खड़े व्यक्ति को लक्ष्य बनाकर उसे प्रलोभन, लालच और दबाव से काबू कर लिया जाता है। बिंदुखत्ता समेत तमाम खत्तों को लेकर उन्होंने कहा कि वह वन भूमि हैं, जहां बड़ी बसासत बसाई जा चुकी है।लेकिन वन कानून उसे वन भूमि ही मानते हैं और यह क्षेत्र आरक्षित वन क्षेत्र हैं। लेकिन तमाम राजनैतिक लोग वास्तविकता से लोगों को अवगत नहीं कराते हैं।इसलिए लोगों के वनाधिकार के दावों पर शासन स्तर से कोई निर्णय नहीं लिया जा रहा है।

वरिष्ठ पत्रकार जगमोहन रौतेला ने कहा कि वनों का अतिक्रमण कोई भी करे वह चिंताजनक है। लोगों ने अपनी मान्यताओं के कारण प्रतिवर्ष लाखों कुंतल लकड़ी शवदाह में जलाने की परम्परा बनाई है, जबकि अब आधुनिक विद्युत शवदाह गृह जैसी विधियां ज्यादा प्रभावी और प्रदूषण मुक्त हैं। लोग धार्मिक परम्पराओं की जकड़न से कारण विद्युत शवदाह गृह में अपने मृतक परिजनों की अंतिम संस्कार नहीं करवा रहे हैं. जो शोचनीय विषय है।

नरेंद्र बंगारी ने कहा कि पिछले दिनों पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मृत्यु हुई तो उनका भी अंतिम संस्कार लकड़ियों पर किया गया था। सभी बड़े लोगों का अंतिम संस्कार ऐसे ही किया जा रहा है। इससे समाज में कोई सकारात्मक संदेश नहीं गया, बल्कि लोगों को लगता है कि लकड़ी से किया शवदाह उनके प्रियजन की मुक्ति सुनिश्चित करता है। इस धारणा को तोड़ने का काम समाज के बड़े लोगों द्वारा किया जाना जरूरी है। जब कोई अपील बने तो उसे सबसे पहले नगर, प्रदेश और देश के नेताओं, अफसरों, बुद्धिजीवियों, समाज में अनुकरणीय लोगों के पास भेजना होगा कि वे अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार लकड़ी जलाकर न करें बल्कि आधुनिक विद्युत शवदाह से करें।

सुभाष पंगरिया ने कहा कि भारतीय संसद से पारित वनाधिकार कानून 2006 का क्रियान्वयन देश के कुछ ही राज्यों में सीमित स्तर पर हुआ है। उत्तराखंड में इन दावों पर कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है। यह चिंताजनक है क्योंकि पीढ़ियों से जिस वन भूमि पर लोगों ने अपने घर बनाए, खेती कर रहे हैं, उनके उजड़ने का खतरा बढ़ चुका है। प्रदेश में कई स्थानों पर लोगों को ऐसी जगहों को खाली करने के नोटिस दिए जा चुके हैं।

यतीश पंत ने कहा कि अंग्रेजों ने वनों को आय का स्रोत बनाने के लिए नियंत्रित किया था। उसके लिए कानून बनाकर लोगों से जंगल छीने थे। उसके विरोध में लोगों ने लगातार जंगलों को जला कर अपना विरोध व्यक्त किया था। परिणाम स्वरूप मजबूरन जंगलों में लोगों के अधिकार स्वीकारे गए और वन पंचायत व्यवस्था बनाई गई।

राजेंद्र जोशी ने कहा कि निजी खेतों में उग आए जंगली पौधों को पेड़ बनने के बाद वन कानून के दायरे में लेकर आना चिंताजनक है क्योंकि कोई परिवार अगर अपनी पैतृक भूमि को दो पीढ़ियों के बाद आबाद करना चाहता है तो उसे मौजूदा वन कानूनों से प्रताड़ित होना पड़ता है। जबकि कई वन क्षेत्रों में सरकार खुद हरे भरे जंगलों को काटकर निर्माण कार्य करवा रही है।

पूरन सिंह बिष्ट ने कहा कि गांव तभी तक गांव हैं जब तक सड़क से नहीं जुड़ जाते। सड़क के आने के बाद वहां जमीन बिकती है। हरियाली और खेती नष्ट होती है। सड़कों के रास्ते चलकर विनाश की सोच आती है। स्वावलंबन पर शहरों की सोच हावी होकर गांवों को भी लालची और कुटिल बना देती है।

गोष्ठी में लिए गए निर्णय के अनुसार, वन कानूनों का अधिक अध्ययन किया जाएगा और उत्तराखंड के संदर्भ में उसकी समझ बनाकर अखबार, सोशल मीडिया और ज्ञापन बनाकर उसका प्रचार प्रसार किया जाएगा। जंगलों की मौजूदा स्थिति चिंताजनक है। उनमें आग लगने की घटनाओं को रोकने के लिए गांवों तक अपील पहुंचाने और लोगों को जागरूक करने की जरूरत है। जिसके लिए यह समूह निरंतर प्रयास करेगा।

वनाधिकार कानून प्रदेश में लागू हो इसके लिए सरकार तक अपनी बात पहुंचाने का प्रयास किया जाएगा। यह भी कि नए वन कानूनों के कारण लोगों के हक हकूकों को कोई क्षति न पहुंचे और देश की अनूठी वन पंचायत व्यवस्था वन विभाग और सरकार के नियंत्रण से बाहर लोगों की साझा व्यवस्था से चले। प्रियजनों की मृत्यु होने पर शवदाह के लिए सभी विद्युत संचालित शवदाह संयंत्र को उपयोग करें। ताकि लकड़ियों का नुकसान न हो और नदी किनारे साफ सुथरे, प्रदूषण मुक्त बनें, इस आशय का ज्ञापन, जागरूकता पर्चा बना कर समाज और सरकार तक भेजा जाएगा।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में वन्यजीव मानव संघर्ष के कारण खेती बागवानी लगातार उजड़ रही है। लोगों को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है। जिसको रोकने के तमाम उपायों में एक उपाय सोलर आधारित घेराबंदी भी है। इस आशय की अपील सरकार से करने के लिए पंचायतों, वन पंचायतों को प्रेरित किया जाएगा कि प्रत्येक खेती वाले चैक में वह कृषि विभाग से निशुल्क घेराबंदी करवाए और लोगों की फसलों को बचाने का काम प्राथमिकता से किया जाए।

सभी लोगों ने वनों के साथ अपने और समाज के गहरे जुड़ाव को प्रदर्शित करते हुए इस गंभीर विषय पर और आगे भी बैठकें करने, अधिक से अधिक जुड़ने तथा इसके लिए किए जाने वाले हरेक प्रयास में भागीदारी पर अपनी सहमति व्यक्त की। समापन परं पूर्व वनाधिकारी मदन सिंह बिष्ट ने मौजूद लोगों को किडनी और उच्च रक्तचाप में कारगर “कासनी“ औषधीय वनस्पति के पौधे उपलब्ध करवाए।

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