
10 Years Of Kedarnath Disaster : उत्तराखंड राज्य के इतिहास में 16 व 17 जून 2013 सबसे बड़ी त्रासदी की तारीखें हैं। ठीक एक दशक पहले वर्ष 2013 में इन्हीं तारीखों को केदारनाथ में आई अब तक की सबसे भीषण आपदा ने हजारों जिन्दगियों को लील लिया था और जिंदगी थम सी गई थी। आपदा का कारक बनी मंदाकिनी नदी में तब से बहुत सारा पानी बह गया है। आपदा के ढेर सारे निशान मिटा दिए गए हैं या फिर प्रकृति ने खुद मिटाने की कोशिश की है, लेकिन जख्म काफी हद तक अभी भी बाकी हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह आग में झुलसे चेहरे के निशान प्लास्टिक सर्जरी के बाद भी पूरी तरह ढके नहीं जा सकते।
आज पुनर्निर्माण के तहत केदारनाथ का नया स्वरूप आकार ले चुका है। कई स्थानों पर तो लगता भी नहीं कि इस तीर्थस्थल ने कभी आपदा का सामना भी किया होगा लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी हम उस केदारनाथ धाम को नहीं पा सकते जो 2013 से पहले था। उन गलियों को नहीं बनाया जा सकता जिनमें बचपन में गुजरा करते थे, वह चौक बाजार आज नई शक्ल ले चुका है।
स्मृतियों में दर्ज उदक कुंड, उसके पास दूधणी गौशाला, जेके भवन, बिड़ला मंगल निकेतन ही नहीं गंगा मंदिर से चलकर अन्नपूर्णा मंदिर और उसके सामने फ्रंटियर हाउस, उससे काफी आगे नेपाल भवन, धरवाल कोठी, पद्म कोठी, सत्यनारायण मंदिर, साथ में पंचवक्त्र महादेव और भी बहुत कुछ याद आ रहा है, लेकिन यह सब अब अतीत हो चुका है। वैसे पुराने रामबाड़ा से आगे घेनुरिया पानी, गंदप गदेरा और गरुड़ चट्टी से आगे जब देवदर्शनी पहुंचते थे तो वहां से धाम का दृश्य जिस तरह दिव्य लगता था, अब वह सब इतिहास हो गया है। नया रोप वे बनने के बाद अगर पुराना यात्रा पथ पुनर्जीवित हुआ तो शायद देवदर्शनी का महत्व फिर से हो जाए, किंतु यह सब भविष्य के गर्भ में है।
पूरे एक दशक बाद आज लगता है कि पीछे मुड़कर देखना और इस त्रासदी के आलोक में उत्तराखंड राज्य में प्राकृतिक आपदाओं और उनसे बचाव की हमारी तैयारियों को परखना बेहद जरूरी हो गया है। जरूरत इस बात की पहले से ज्यादा बढ़ गई है कि उन क्षेत्रों की पहचान की जाए जहां हमें अतिरिक्त ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है।
एसडीसी फाउंडेशन के अनूप नौटियाल के इस कथन से असहमति का कोई आधार नहीं है कि “आज आपदा न्यूनीकरण और बचाव से संबंधित कार्य किए जा रहे हैं, लेकिन बेहतर नतीजों के लिए निरंतर निवेश, गहरी प्रतिबद्धताओं और वास्तविक जन साझेदारी की आवश्यकता है।“ नौटियाल इस मुद्दे को केंद्र में रख देहरादून में 18 जून को एक संवाद सत्र का आयोजन भी कर रहे हैं, यह उनकी संवेदनशीलता का प्रमाण है। जाहिर है इसी तरह की संवेदनशीलता हर स्तर पर दिखाई दे, इसकी अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए।
एक दशक में केदार घाटी का भूगोल और इतिहास काफी कुछ बदला है। आपदा ने जो जख्म दिए थे, उनमें से काफी कुछ भर गए हैं, वहां रोजगार का नया परिवेश विकसित हुआ है। काफी कुछ बदला है लेकिन अगर कुछ नहीं बदला है तो वह है प्रकृति से छेड़छाड़ की प्रवृति। पिछले दो सालों में धाम में तीर्थयात्रियों की संख्या के नए रिकॉर्ड बन रहे हैं, अवस्थापना सुविधाएं निरंतर कम पड़ती जा रही हैं। सरकार को उम्मीद है कि इस साल चारधाम यात्रा का आंकड़ा 50 लाख से ऊपर जाएगा। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ही अकेले केदारनाथ में तीर्थयात्रियों की संख्या का आंकड़ा दस लाख छूने जा रहा है।
इन सब तथ्यों के बावजूद हम अभी ऐसा कोई तंत्र विकसित नहीं कर पाए हैं कि सचमुच देश-विदेश के श्रद्धालुओं को यादगार स्मृतियों की सौगात दे सकें। जब सब कुछ ठीक चलने लगता है तभी कहीं ओवर रेटिंग की शिकायत आ जाती है तो कभी घोड़ा संचालक श्रद्धालुओं के साथ मारपीट कर कडुवाहट घोल जाते हैं।
रुद्रप्रयाग से आगे जैसे ही हम बढ़ते हैं, संभावित आपदा की आहट कई स्थानों पर मिल जाती है। घाटी क्षेत्र में कई स्थानों पर भू-धंसाव दिख जाता है। भीरी के सामने लगातार कई वर्षों से भूस्खलन नंगी आंखों से देखा जा सकता है। कुंड के पास सेमी गांव के अस्तित्व पर खतरा देख नेशनल हाईवे अथॉरिटी ने बाईपास बना दिया। बेशक वह अभी अधूरा है लेकिन सेमी गांव के तीनों बैंडों के कारण सड़क बहुत सारी धंसी हुई है और इसी कारण पूरे यात्रा मार्ग में यही सात किमी सड़क सबसे ज्यादा कष्ट भी देती है।
गुप्तकाशी जो यात्रा का मुख्य पड़ाव है, अपनी कुल धारण क्षमता को पार कर चुका है और अभी भी बेतहाशा निर्माण जारी हैं। कुछेक स्थानों पर धंसती जमीन आगाह कर रही है, लेकिन लगता है यहां भी जोशीमठ जैसी आपदा का इंतजार है। गुप्तकाशी से आगे नाला, नारायण कोटी, फाटा, शेरसी, रामपुर, सीतापुर, सोनप्रयाग कहीं भी देख लें, सीमेंट और कंक्रीट का जंगल तेजी से उभर रहा है। उसके लिए न तो कोई वैज्ञानिक आधार है और न ही नक्शा आदि का प्रावधान। सोनप्रयाग से आगे भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है। धाम तक सिर्फ और सिर्फ कामचलाऊ व्यवस्था है। यह स्थिति आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील इस भूभाग को किस दिशा में ले जाएगी, कल्पना मात्र से ही सिहरन होती है।
दरकते हुए ऊपर लिखे कुछ स्थानों को आप देखकर अनुमान लगा सकते हैं, लेकिन जिस तरह से मंदाकिनी नदी में अवैज्ञानिक खनन हो रहा है, वह कौन से जख्म देगा इसका अनुमान किसी को भी नहीं है। कहने को सेंचुरी क्षेत्र में खनन पर रोक है लेकिन दिल पर हाथ रख कर कितने जिम्मेदार लोग कसम खा कर कह सकते हैं कि रुद्रप्रयाग से केदारनाथ तक बिल्कुल भी खनन नहीं हो रहा है। विभिन्न स्थानों पर लगे क्रशर इसकी पोल खोलने के लिए काफी हैं। जाहिर है इन क्रशरों पर रोड़ी और डस्ट के लिए पत्थर श्रीनगर से तो नहीं लाए जा रहे हैं। स्थानीय दोहन तो हो ही रहा है।
खैर, 2013 की आपदा में जिन लोगों ने जान गंवाई, उनको श्रद्धांजलि देने का यह दिन एक संकल्प की अपेक्षा भी करता है कि भविष्य में इस तरह के हादसों से दो चार न होना पड़े, इसके लिए सिर्फ सरकार नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के स्तर पर सोचने, समझने और तदनुसार आचरण की स्वाभाविक अपेक्षा है।
संयोग से आपदा में बह चुके केदारनाथ मंदिर के ठीक बगल में ईशान कोण पर बना ईशानेश्वर महादेव मंदिर की आज के ही दिन पुनर्स्थापना कर दी गई है। इस मंदिर की कुछ प्रतिमाएं किसी तरह बच गई थी, उन्हें अब तक मुख्य मंदिर के सभा मंडप में रखा गया था। पिछले वर्ष की यात्रा के दौरान जब मेरा ध्यान उस तरफ गया था तो तब मंदिर समिति के कार्याधिकारी आरसी तिवारी ने मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए बताया था कि ईशानेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा है। आज वह कार्य पूर्ण हो गया, यह संतोष की बात है।
बहरहाल सौ की नौ सिर्फ यही है कि किसी भी स्तर पर आपदा को न्यौता न दिया जाए, बेतहाशा निर्माण पर अंकुश लगे तथा इसके लिए एक मजबूत तंत्र बनाया जाए। यही वक्त की जरूरत है।
(लेखक दिनेश शास्त्री का नाम उत्तरराखंड के जाने माने पत्रकारों में शुमार है)